Monday, March 21, 2011

ब्राह्मण अर्थात् धर्म सत्ता और स्वराज्य सत्ता की अधिकारी आत्मा

13-03-2011]
13-03-11 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त बापदादा'' रिवाइज:07-03-95 मधुबन
ब्राह्मण अर्थात् धर्म सत्ता और स्वराज्य सत्ता की अधिकारी आत्मा
वरदान: नॉलेज की लाइट माइट द्वारा कमजोर संस्कारों को समापत करने वाले शक्ति सम्पन्न भव
नॉलेज से अपने कमजोर संस्कारों का मालूम तो पय्ड जाता है और जब उस बात की समझानी मिलती है तो वे संस्कार थोय्डे समय के लिए अन्दर दब जाते हैं लेकिन कमजोर संस्कार समापत करने के लिए लाइट और माइट के एकस्ट्रा फोर्स की आवश्यकता है। इसके लिए मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर नॉलेजफुल के साथ-साथ चेकिंग मास्टर बनो। नॉलेज द्वारा स्वयं में शक्ति भरो, मनन शक्ति को बय्ढाओ तो शक्ति सम्पन्न बन जायेंगे।
स्लोगन: जहाँ सर्व प्रापितयां हैं वहाँ प्रसन्नता है।
14.03.2011

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम सच्चे-सच्चे सत्य बाप से सत्य कथा सुनकर नर से नारायण बनते हो, तुम्हें 21 जन्म के लिए बेहद के बाप से वर्सा मिल जाता है''


प्रश्न: बाप की किस आज्ञा को पालन करने वाले बच्चे ही पारसबुद्धि बनते हैं?


उत्तर: बाप की आज्ञा है - देह के सब सम्बन्धों को भूलकर बाप को और राजाई को याद करो। यही सद्गति के लिए सतगुरू की श्रीमत है। जो इस श्रीमत को पालन करते अर्थात् देही-अभिमानी बनते हैं वही पारसबुद्धि बनते हैं।


गीत:- आज अन्धेंरे में हम इन्सान ...


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&feature=related" target="_blank">धारणा के लिए मुख्य सार:


1) इस अन्तिम 84 वें जन्म में कोई भी पाप कर्म (विकर्म) नहीं करना है। पुण्य आत्मा बनने का पूरा-पूरा पुरूषार्थ करना है। सम्पूर्ण पावन बनना है।


2) अपनी बुद्धि को पारसबुद्धि बनाने के लिए देह के सब सम्बन्धों को भूल देही-अभिमानी बनने का अभ्यास करना है।


वरदान: स्नेही बनने के गुह्य रहस्य को समझ सर्व को राज़ी करने वाले राज़युक्त, योगयुक्त भव


जो बच्चे एक सर्वशक्तिमान् बाप के स्नेही बनकर रहते हैं वे सर्व आत्माओं के स्नेही स्वत: बन जाते हैं। इस गुह्य रहस्य को जो समझ लेते वह राज़युक्त, योगयुक्त वा दिव्यगुणों से युक्तियुक्त बन जाते हैं। ऐसी राज़युक्त आत्मा सर्व आत्माओं को सहज ही राज़ी कर लेती है। जो इस राज़ को नहीं जानते वे कभी अन्य को नाराज़ करते और कभी स्वयं नाराज रहते हैं इसलिए सदा स्नेही के राज़ को जान राजयुक्त बनो।


स्लोगन: जो निमित्त हैं वह जिम्मेवारी सम्भालते भी सदा हल्के हैं।

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम्हें सद्गति की सबसे न्यारी मत मिली है कि देह के सब धर्म त्याग आत्म अभिमानी भव, मामेकम् याद करो''

[15.03.2011]


मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम्हें सद्गति की सबसे न्यारी मत मिली है कि देह के सब धर्म त्याग आत्म अभिमानी भव, मामेकम् याद करो''
प्रश्न: जो परमात्मा को नाम रूप से न्यारा कहते हैं, उनसे तुम कौन सा प्रश्न पूछ सकते हो?
उत्तर: उनसे पूछो - गीता में जो दिखाते हैं अर्जुन को अखण्ड ज्योति स्वरूप का साक्षात्कार हुआ, बोला बस करो हम सहन नहीं कर सकते। तो फिर नाम रूप से न्यारा कैसे कहते हो। बाबा कहते हैं मैं तो तुम्हारा बाप हूँ। बाप का रूप देखकर बच्चा खुश होगा, वह कैसे कहेगा मैं सहन नहीं कर सकता।
गीत:- तेरे द्वार खड़ा भगवान ...
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) मास्टर ज्ञान सागर बन पतित से पावन बनाने की सेवा करनी है। बाप ने जो सब शास्त्रों का सार सुनाया है वह बुद्धि में रख सदा हर्षित रहना है।
2) एक बाप की श्रीमत हर पल पालन करना है। देह के सब धर्म त्याग आत्म-अभिमानी बनने की मेहनत करनी है।
वरदान: स्वमान में स्थित रह देह-अभिमान को समाप्त करने वाले सफलतामूर्त भव
जो बच्चे स्वमान में स्थित रहते हैं वही बाप के हर फरमान का सहज ही पालन कर सकते हैं। स्वमान भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान को समाप्त कर देता है। लेकिन जब स्वमान से स्व शब्द भूल जाता है और मान-शान में आ जाते हो तो एक शब्द की गलती से अनेक गलतियां होने लगती हैं इसलिए मेहनत ज्यादा और प्रत्यक्षफल कम मिलता है। लेकिन सदा स्वमान में स्थित रहो तो पुरूषार्थ वा सेवा में सहज ही सफलता-मूर्त बन जायेंगे।
स्लोगन: तपस्या करनी है तो समय को बचाओ, बहाना नहीं दो।

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - याद की यात्रा में रेस करो तो पुण्य आत्मा बन जायेंगे, स्वर्ग की बादशाही मिल जायेगी''

[16-03-2011]


मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - याद की यात्रा में रेस करो तो पुण्य आत्मा बन जायेंगे, स्वर्ग की बादशाही मिल जायेगी''
प्रश्न: ब्राह्मण जीवन में अगर अतीन्द्रिय सुख का अनुभव नहीं होता है तो क्या समझना चाहिए?
उत्तर: जरूर सूक्ष्म में भी कोई न कोई पाप होते हैं। देह-अभिमान में रहने से ही पाप होते हैं, जिस कारण उस सुख की अनुभूति नहीं कर सकते हैं। अपने को गोप गोपियाँ समझते हुए भी अतीन्द्रिय सुख की भासना नहीं आती, जरूर कोई भूल होती है इसलिए बाप को सच बतलाकर श्रीमत लेते रहो।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) मंजिल बहुत ऊंची है इसलिए कदम-कदम पर सर्जन से राय लेनी है। श्रीमत पर चलने में ही फायदा है, बाप से कुछ भी छिपाना नहीं है।
2) देह और देहधारियों से बुद्धि का योग हटाए एक बाप से लगाना है। कर्म करते भी एक बाप की याद में रहने का पुरूषार्थ करना है।
वरदान: सेकण्ड में सर्व कमजोरियों से मुक्ति प्राप्त कर मर्यादा पुरूषोत्तम बनने वाले सदा स्नेही भव
जैसे स्नेही स्नेह में आकर अपना सब कुछ न्यौछावर वा अर्पण कर देते हैं। स्नेही को कुछ भी समर्पण करने के लिए सोचना नहीं पड़ता। तो जो भी मर्यादायें वा नियम सुनते हो उन्हें प्रैक्टिकल में लाने अथवा सर्व कमजोरियों से मुक्ति प्राप्त करने की सहज युक्ति है - सदा एक बाप के स्नेही बनो। जिसके स्नेही हो, निरन्तर उसके संग में रहो तो रूहानियत का रंग लग जायेगा और एक सेकण्ड में मर्यादा पुरूषोत्तम बन जायेंगे क्योंकि स्नेही को बाप का सहयोग स्वत: मिल जाता है।
स्लोगन: निश्चय का फाउण्डेशन मजबूत है तो सम्पूर्णता तक पहुंचना निश्चित है।

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - एक बाप ही नम्बरवन एक्टर है जो पतितों को पावन बनाने की एक्ट करते हैं, बाप जैसी एक्ट कोई कर नहीं सकता''

17-03-2011]
मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - एक बाप ही नम्बरवन एक्टर है जो पतितों को पावन बनाने की एक्ट करते हैं, बाप जैसी एक्ट कोई कर नहीं सकता''
प्रश्न: सन्यासियों का योग जिस्मानी योग है, रूहानी योग बाप ही सिखलाते हैं, कैसे?
उत्तर: सन्यासी ब्रह्म तत्व से योग रखना सिखलाते हैं। अब वह तो रहने का स्थान है। तो वह जिस्मानी योग हो गया। तत्व को सुप्रीम नहीं कहा जाता। तुम बच्चे सुप्रीम रूह से योग लगाते इसलिए तुम्हारा योग रूहानी योग है। यह योग बाप ही सिखला सकते, दूसरा कोई भी सिखला न सके क्योंकि वही तुम्हारा रूहानी बाप है।
गीत:- तू प्यार का सागर है...
धारणा के लिए मुख्य सार :-
1) सच्चे-सच्चे आशिक बन हाथों से काम करते बुद्धि से माशूक को याद करने की प्रैक्टिस करनी है। बाप की याद से हम स्वर्गवासी बन रहे हैं, इस खुशी में रहना है।
2) सूर्यवंशी डिनायस्टी में तख्तनशीन बनने के लिए मात-पिता को पूरा-पूरा फॉलो करना है। बाप समान नॉलेजफुल बन सबको रास्ता बताना है।
वरदान: सारे वृक्ष की नॉलेज को स्मृति में रख तपस्या करने वाले सच्चे तपस्वी व सेवाधारी भव
भक्ति मार्ग में दिखाते हैं कि तपस्वी वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करते हैं। इसका भी रहस्य है। आप बच्चों का निवास इस सृष्टि रूपी कल्प वृक्ष की जड़ में है। वृक्ष के नीचे बैठने से सारे वृक्ष की नॉलेज बुद्धि में स्वत: रहती है। तो सारे वृक्ष की नॉलेज स्मृति में रख साक्षी होकर इस वृक्ष को देखो। तो यह नशा, खुशी दिलायेगा और इससे बैटरी चार्ज हो जायेगी। फिर सेवा करते भी तपस्या साथ-साथ रहेगी।
स्लोगन: तन की बीमारी कोई बड़ी बात नहीं लेकिन मन कभी बीमार न हो।

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम्हें आपस में बहुत-बहुत रूहानी स्नेह से रहना है, कभी भी मतभेद में नहीं आना है'' प्रश्न: हर एक ब्राह्मण बच्चे को अपनी दि

[18-03-2011]
मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम्हें आपस में बहुत-बहुत रूहानी स्नेह से रहना है, कभी भी मतभेद में नहीं आना है''
प्रश्न: हर एक ब्राह्मण बच्चे को अपनी दिल से कौन सी बात पूछनी चाहिए?
उत्तर: अपनी दिल से पूछो -1) मैं ईश्वर की दिल पर चढ़ा हुआ हूँ! 2) मेरे में दैवी गुणों की धारणा कहाँ तक है? 3) मैं ब्राह्मण ईश्वरीय सर्विस में बाधा तो नहीं डालता! 4) सदा क्षीरखण्ड रहता हूँ! हमारी आपस में एकमत है? 5) मैं सदा श्रीमत का पालन करता हूँ?
गीत:- भोलेनाथ से निराला.......
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बापदादा की दिल पर चढ़ने के लिए मन्सा-वाचा-कर्मणा सेवा करनी है। एक्यूरेट और आलराउन्डर बनना है।
2) ऐसा देही-अभिमानी बनना है जो कोई भी पुराने संबंधी याद न आयें। आपस में बहुत-बहुत रूहानी प्यार से रहना है, लूनपानी नहीं होना है।
वरदान: अन्तर्मुखी बन अपने समय और संकल्पों की बचत करने वाले विघ्न जीत भव
कोई भी नई पावरफुल इन्वेन्शन करते हैं तो अन्डरग्राउण्ड करते हैं। आप भी जितना अन्तर्मुखी अर्थात् अन्डरग्राउण्ड रहेंगे उतना वायुमण्डल से बचाव हो जायेगा, मनन शक्ति बढ़ेगी और माया के विघ्नों से भी सेफ हो जायेंगे। बाहरमुखता में आते भी अन्तर्मुख, हर्षितमुख, आकर्षणमूर्त रहो, कर्म करते भी यह प्रैक्टिस करो तो समय की बचत होगी और सफलता भी अधिक अनुभव करेंगे।
स्लोगन: बीमारी से घबराओ नहीं, उसे दवाई रूपी फ्रूट खिलाकर विदाई दे दो।

मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम रूप बसन्त हो, तुम्हारे मुख से सदैव ज्ञान रत्न ही निकलने चाहिए, जब भी नया कोई आये तो उसे बाप की पहचान दो''

19-03-2011]


मुरली सार :- ''मीठे बच्चे - तुम रूप बसन्त हो, तुम्हारे मुख से सदैव ज्ञान रत्न ही निकलने चाहिए, जब भी नया कोई आये तो उसे बाप की पहचान दो''
प्रश्न: अपनी अवस्था को एकरस बनाने का साधन कौन सा है?
उत्तर: संग की सम्भाल करो तो अवस्था एकरस बनती जायेगी। हमेशा अच्छे सर्विसएबुल स्टूडेन्ट का संग करना चाहिए। अगर कोई ज्ञान और योग के सिवाए उल्टी बातें करते हैं, मुख से रत्नों के बदले पत्थर निकालते हैं तो उनके संग से हमेशा सावधान रहना चाहिए।
गीत:- रात के राही...
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) सेन्सीबुल बन सबको बाप का परिचय देना है। मुख से कभी पत्थर निकाल डिससर्विस नहीं करनी है। ज्ञान-योग के सिवाए दूसरी कोई चर्चा नहीं करनी है।
2) जो रूप-बसन्त हैं, सर्विसएबुल हैं उनका ही संग करना है। जो उल्टी-सुल्टी बातें सुनायें उनका संग नहीं करना है।
वरदान: हर शिक्षा को स्वरूप में लाकर सबूत देने वाले सपूत वा साक्षात्कार मूर्त भव
जो बच्चे शिक्षाओं को सिर्फ शिक्षा की रीति से बुद्धि में नहीं रखते, लेकिन उन्हें स्वरूप में लाते हैं वह ज्ञान स्वरूप, प्रेम स्वरूप, आनंद स्वरूप स्थिति में स्थित रहते हैं। जो हर प्वाइंट को स्वरूप में लायेंगे वही प्वाइंट रूप में स्थित हो सकेंगे। प्वाइंट का मनन अथवा वर्णन करना सहज है लेकिन स्वरूप बन अन्य आत्माओं को भी स्वरूप का अनुभव कराना - यही है सबूत देना अर्थात् सपूत वा साक्षात्कार मूर्त बनना।
स्लोगन: एकाग्रता की शक्ति को बढ़ाओ तो मन-बुद्धि का भटकना बंद हो जायेगा।

''मीठे बच्चे - तुम्हें श्रीमत पर तत्वों सहित सारी दुनिया को पावन बनाने की सेवा करनी है, सबको सुख और शान्ति का रास्ता बताना है''

''मीठे बच्चे - तुम्हें श्रीमत पर तत्वों सहित सारी दुनिया को पावन बनाने की सेवा करनी है, सबको सुख और शान्ति का रास्ता बताना है''
प्रश्न: तुम बच्चे अपनी देह को भी भूलने का पुरूषार्थ करते हो इसलिए तुम्हें किस चीज़ की दरकार नहीं हैं?
उत्तर: चित्रों की। जब यह चित्र (देह) ही भूलना है तो उन चित्रों की क्या दरकार है। स्वयं को आत्मा समझ विदेही बाप को और स्वीट होम को याद करो। यह चित्र तो हैं छोटे बच्चों के लिए अर्थात् नयों के लिए। तुम्हें तो याद में रहना है और सबको याद कराना है। धंधा आदि करते सतोप्रधान बनने के लिए याद में ही रहने का अभ्यास करो।
गीत:- तकदीर जगाकर आई हूँ........
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बाप समान महिमा योग्य बनने के लिए फालो फादर करना है।
2) यह अन्तिम जन्म है, अब घर जाना है इसलिए खुशी में अन्दर ही अन्दर नगाड़े बजते रहें। कर्मभोग को कर्मयोग से अर्थात् बाप की याद से खुशी-खुशी चुक्तू करना है।
वरदान: सर्व रूपों से, सर्व सम्बन्धों से अपना सब कुछ बाप के आगे अर्पण करने वाले सच्चे स्नेही भव
जिससे अति स्नेह होता है, तो उस स्नेह के लिए सभी को किनारे कर सब कुछ उनके आगे अर्पण कर देते हैं, जैसे बाप का बच्चों से स्नेह है इसलिए सदाकाल के सुखों की प्राप्ति स्नेही बच्चों को कराते हैं, बाकी सबको मुक्तिधाम में बिठा देते हैं, ऐसे बच्चों के स्नेह का सबूत है सर्व रूपों, सर्व संबंधों से अपना सब कुछ बाप के आगे अर्पण करना। जहाँ स्नेह है वहाँ योग है और योग है तो सहयोग है। एक भी खजाने को मनमत से व्यर्थ नहीं गंवा सकते।
स्लोगन: साकार कर्म में ब्रह्मा बाप को और अशरीरी बनने में निराकार बाप को फालो करो।

स्वच्छ और आत्मिक बल वाली आत्मा ही आकर्षणमूर्त है

20-03-11 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ''अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज: 16-07-72 मधुबन
स्वच्छ और आत्मिक बल वाली आत्मा ही आकर्षणमूर्त है
वरदान: सर्व आत्माओं पर स्नेह का राज्य करने वाले विश्व राज्य अधिकारी भव
जो बच्चे वर्तमान समय सर्व आत्माओं के दिल पर स्नेह का राज्य करते हैं वही भविष्य में विश्व के राज्य का अधिकार प्राप्त करते हैं। अभी किसी पर आर्डर नहीं चलाना है। अभी से विश्व महाराजन नहीं बनना है, अभी विश्व सेवाधारी बनना है, स्नेह देना है। देखना है कि अपने भविष्य के खाते में स्नेह कितना जमा किया है। विश्व महाराजन बनने के लिए सिर्फ ज्ञान दाता नहीं बनना है इसके लिए सबको स्नेह अर्थात् सहयोग दो।
स्लोगन: जब थकावट फील हो तो खुशी में डांस करो, इससे मूड चेंज हो जायेगी।

Saturday, March 12, 2011

धर्म सत्ता माना सत्यता और पवित्रता का धारणाका स्वरूप वाले

१. हम आत्मायें, सारे विष्व मे हर व्यक्ति को हर घर मे बाप का मेसेज पहुँचाने वाले मास्टर विष्व कल्याणकरी हैं |
२. हम आत्मायें, ज्ञान को मनन करने वाले मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर नाँलेजफुल और चेकिंग मास्टर हैं |
३. हम आत्मायें, सर्व प्राप्ति सम्पन्न प्रसन्न फरिश्ते हैं |



स्टडी पायंट्स:
१. धर्म सत्ता माना सत्यता और पवित्रता का धारणाका स्वरूप वाले |
२. स्वराज्य अधिकारी अर्थात सर्व कर्मेन्द्रियों अपने ऑर्डर मे चलाना |
३. एडजस्टमेन्ट की विशेषता को यूज़ करो |

अब कलियुग अंत एवं सतयुग के आदि के संगम का समय चल रहा है।

अपनी जीवन रूपी नैया को सफलता पूर्वक लक्ष्य तक पंहुचाने के लिए हमें दिव्यगुणों और शक्तियों की आवश्यक्ता है। राजयोग का अभ्यास हमें सर्वशक्ति सम्पन्न बनाता है। आत्म परमात्मानुभूति के इस दौर में बताया कि भारतीय पौराणिक कथाओं में प्रत्येक शक्ति विशेष के लिए शिव शक्तियों का गायन है। इन शक्तियों की धारणाकुछ मूल्यों के आधार पर की जा सकती है।ज्ञान योग के द्वारा हम इन आठ शक्तियों परखना, निर्णय, समेटना, संकीर्णता, सहनशीलता आदि की अनूभूति कर सकते हैं। राजयोग हमारी बुद्धि को स्वच्छ एवमं शक्तिशाली बनाता है। सफलता प्राप्ति के लिए हमें इन शक्तियों को ध्यानपूर्वक एवं उचित स्थान पर प्रयोग करना चाहिए। अब कलियुग अंत एवं सतयुग के आदि के संगम का समय चल रहा है। इस समय हमें अपने पुराने हिसाब-किताब कोसमेटने का पुरुषार्थ करना चाहिए और ईश्वरीय ज्ञान तथा योग के दीप घर-घर जलाकर समाज की सेवा करनी चाहिए।

कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है

कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा।

जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।

मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।

उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारकऔर सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।

नफरत से आप नरक के गड्ढे में गिर जाएंगे।

अपने आपको दूसरों से अलग मानना, महसूस करना और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना। इंसान में यह मूल अहंकार होता है कि 'मैं दूसरों से अलग हूं, मैं अपने आपको दूसरों से अलग मानता हूं, अलग मानकर मैं नफरत लाऊं।' तब उसे यही कहा जाता है कि 'अपने आपको अलग मान ही रहे हैं तो कम से कम दूसरों के प्रति अपने मन में नफरत तो न जगाएं, नफरत से आप नरक के गड्ढे में गिर जाएंगे। अपने आपको यदि आप श्रेष्ठ मान ही रहे हैं तो कम से कम दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश तो न करें, जिससे आप ईर्ष्या व क्रोध की ज्वाला में तो न जलें। अपने प्रति आदर रखने से संभावना है तो आप इस अहंकार से बाहर आ जाएंगे।'आप अपने प्रति आदर तभी दे पाएंगे, जब आप यह जान जाएंगे कि 'मैं कौन हूं? मुझे अपने आपको जानना चाहिए तभी मैं खुश रह पाऊंगा, वरना मेरा विकास कैसे होगा?' हमें स्वयं के प्रति आदर है तो हम चाहेंगे कि हम जल्द से जल्द सत्य जानें। अपने प्रति आदर होना बहुत मुख्य है। शुरुआत वहीं से होगी। स्वयं को आदर देने वाला इंसान गलतियों से बचने का रास्ता ढूंढ़ना चाहेगा। वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी आजादी छिन जाए।

मित्रता में भी कुछ न कुछ स्वार्थ तो होता ही है। स्वार्थ रहित मित्रता असंभव है।

सबसे बडा मंत्र है कि अपने मन की बात और भेद दूसरे को न बताओ। अन्यथा विनाशकारी परिणाम होंगे।

व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिये। सीधे तने के पेड सबसे पहिले काटे जाते हैं। ईमानदार आदमी को मुश्किलों में फ़ंसाया जाता है।

अगर कोई सांप जहरीला नहीं हो तो भी उसे फ़ूफ़कारते रहना चाहिये। आदमी कमजोर हो तो भी उसे अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये

मित्रता में भी कुछ न कुछ स्वार्थ तो होता ही है। स्वार्थ रहित मित्रता असंभव है।
कोइ भी काम शुरु करने से पहिले अपने आप से तीन प्रश्न पूछें। मैं यह काम क्यों कर रहा हूं? इस कार्य का क्या परिणाम होगा? और क्या मुझे इसमें सफ़लता हासिल होगी?
क्रोध यमराज के समान है,उसके कारण मनुष्य मृत्यु की गौद में चला जाता है। तृष्णा वैतरणी नदी के समान है जिसके कारण मनुष्य को सदैव कष्ट झेलने पडते हैं।
विद्या कामधुनु के समान है। व्यक्ति विद्या हासिल कर उसका फ़ल कहीं भी प्राप्त कर सकता है।
संत्तोष नंदन वन के समान है। मनुष्य इसे अपने में स्थापित करले तो उसे वही शांति मिलेगी जो नंदन वन में रहने से मिलती है।
झूठ बोलना,उतावलापन दिखाना,दुस्सहस करना,छलकपट करना,मूर्खता पूर्ण कार्य करना,लोभ करना,अपवित्रता और निर्दयता ये सभी ों के स्वाभाविक दोष हैं।

भोजन के लिये अच्छे पदार्थ उपलब्ध होना ,उन्हें पचाने की शक्ति होना,सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग करने की काम शक्ति होना,प्रचुर धन के साथ दान देने की इच्छा होना, ये सभी सुख मनुष्य को बडी कठिनाई से प्राप्त होते हैं।
जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपडी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके काम बिगाड देता हो उसे त्यागने में ही भलाई है।वह उस बर्तन के समान है जिसके बाहरी हिस्से पर दूध लगा हो लेकिन अंदर विष भरा हो।
वे माता-पिता अपने बच्चों के लिये शत्रु के समान हैं,जिन्होने बच्चों को अच्छी शिक्छा नहीं दी। क्योंकि अनपढ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के समूह में बगुले की स्थिति होती है। शिक्छा विहीन मनुष्य बिना पूंछ के जानवर जानवर जैसा होता है।
मित्रता बराबरी वाले व्यक्तियों में करना ठीक होता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है।अच्छे व्यापार के लिये व्यवहार कुशलता आवश्यक है।सुन्दर और सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
जिस प्रकार पत्नि के वियोग का दु:ख,अपने भाई बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है,उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी सदैव दुखी रहता है।दुष्ट राजा की सेवा मेम रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है।
मूर्खता के समान योवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के वशीभूत होकर गलत मार्ग पर चल देता है।
जो व्यक्ति अच्छा मित्र न हो उस पर विश्वास मत करो लेकिन अच्छे मित्र पर भी पूरा भरोसा नहीं करना चाहिये क्योंकि कभी वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है ।इसलिये हर हालत में सावधानी बरतना आवश्यक है।

अहंकार

मैं कौन हूं? 'आत्मविश्वास और घमंड'- इन दोनों शब्दों में बड़ा फर्क है।

घमंड का अर्थ अहंकार होता और आत्मविश्वास का अर्थ है अपने ऊपर विश्वास।

इस अंतर को समझना चाहिए, वरना लोग सोचते हैं कि इंसान में आत्मगौरव नहीं

होना चाहिए। उन्हें लगता है कि 'मैं दूसरों के सामने कुछ नहीं हूं' ऐसा

सोचना चाहिए। इस तरह वे दूसरी किस्म के अज्ञान में चले जाते हैं। जहां

अहंकार, तुच्छता और आत्महीनता भी नहीं है, वहां आत्मज्ञान का दर्शन होता

है।



जिसे खुद पर विश्वास है, वह सही कदम उठाता है। वह उतना ही खाना खाएगा,

जितना खाना उसे तकलीफ नहीं देगा। जिसे सिर्फ अहंकार है वह ज्यादा खाना खा

लेगा, चाहे उसे तकलीफ ही क्यों न हो जाए। अहंकारी चार लोगों को दिखाएगा

कि 'देखो, मेरी क्षमता और काबिलियत कितनी ज्यादा है! सभी को गुलाब जामुन

दिए जा रहे थे, मुझे ज्यादा मिले क्योंकि मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूं।'

दूसरों को दिखाने के लिए कि 'मैं वी.आई.पी. (विशेष) इंसान हूं, मुझे

ज्यादा दिया जाए', वह ज्यादा की मांग करेगा, ज्यादा खाएगा, बीमार होगा

मगर अकड़ा ही रहेगा। यह अहंकार का रूप है। अहंकार में वह ज्यादा खाएगा,

क्योंकि उसे अपने प्रति आदर नहीं है, सिर्फ लोगों के सामने दिखावे के लिए

वह अपनी हानि भी करने को तैयार हो जाता है।



एक बार एक राजनेता जब सरकारी कार्यालय में किसी काम से पहुंचा, तब

कार्यालय के कर्मचारी ने उन्हें कुछ समय ठहरने के लिए कहा। राजनेता को

बहुत बुरा लगा, उनके अहंकार को बड़ी चोट पहुंची। उन्होंने कर्मचारी से

कहा, 'मुझे ज्यादा समय रुकने की आदत नहीं है।' कर्मचारी ने कहा, 'थोड़ा

समय लगनेवाला है, आप तब तक सामनेवाली कुर्सी पर बैठ जाएं।' राजनेता ने

गुस्से में कहा, 'क्या तुम नहीं जानते कि मैं एक राजनेता हूं?' कर्मचारी

ने कहा, 'ऐसा है तो आप दो कुर्सियों पर बैठ जाएं।'



यह तो एक चुटकुला था, जो अहंकार पर चोट पहुंचाने के लिए बताया गया।

अहंकार भी कुछ इस तरह का ही होता है, चाहे जरूरत एक ही कुर्सी की हो,

लेकिन अपनी विशेषता बताने के लिए वह दो कुर्सियों की मांग करता है।



अहंकार का अर्थ और आदर का महत्व: अहंकार का मूल अर्थ है अपने आपको दूसरों

से अलग मानना, महसूस करना और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना।

इंसान में यह मूल अहंकार होता है कि 'मैं दूसरों से अलग हूं, मैं अपने

आपको दूसरों से अलग मानता हूं, अलग मानकर मैं नफरत लाऊं।' तब उसे यही कहा

जाता है कि 'अपने आपको अलग मान ही रहे हैं तो कम से कम दूसरों के प्रति

अपने मन में नफरत तो न जगाएं, नफरत से आप नरक के गड्ढे में गिर जाएंगे।

अपने आपको यदि आप श्रेष्ठ मान ही रहे हैं तो कम से कम दूसरों को नीचा

दिखाने की कोशिश तो न करें, जिससे आप ईर्ष्या व क्रोध की ज्वाला में तो न

जलें। अपने प्रति आदर रखने से संभावना है तो आप इस अहंकार से बाहर आ

जाएंगे।'



आप अपने प्रति आदर तभी दे पाएंगे, जब आप यह जान जाएंगे कि 'मैं कौन हूं?

मुझे अपने आपको जानना चाहिए तभी मैं खुश रह पाऊंगा, वरना मेरा विकास कैसे

होगा?' हमें स्वयं के प्रति आदर है तो हम चाहेंगे कि हम जल्द से जल्द

सत्य जानें। अपने प्रति आदर होना बहुत मुख्य है। शुरुआत वहीं से होगी।

स्वयं को आदर देने वाला इंसान गलतियों से बचने का रास्ता ढूंढ़ना चाहेगा।

वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी आजादी छिन जाए।

Thursday, March 3, 2011

संसार में परमपिता परमात्मा ही एक ऐसा है जो मनुष्य के साथ हर पल संबंध निभाने के लिए तैयार रहता है। परमात्मा संसार का रचयिता है और निराकार है, उसका भौति

समस्त जगत् में जितने भी प्राणी हैं सबका एक दूसरे से कोई संबंध है। बिना संबंध के हम इस जगत् में खुशहाल जीवन नहीं व्यतीत कर सकते। संबंधों के तार मनुष्य को शक्ति प्रदान करते हैं। लौकिक-अलौकिक वैभव, सुख, शांति, गुणों और शक्तियों का आदान-प्रदान भी सहज होता है। उनसे हमारे संबंध दिव्य और अलौकिक हैं इसलिए हम उनकी श्रेष्ठ क्रियाकलापों का अनुसरण करते हैं। उनको जीवन में उतारने की कोशिश करते है। लौकिक और अलौकिक का भी एक दूसरे से गहरा संबंध है। आत्मा अलौकिक है और शरीर लौकिक है। समस्त जगत लौकिक और अलौकिक के गहरे संबंध से जुडा है। इसके आधार पर यह भूमंडल चल रहा है। मनुष्यों का देवताओं से भी संबंध है क्योंकि वे दैवी गुण वाले हैं, हमारे आराध्य हैं। उनसे हमें शक्ति, वैभव और शांति की प्राप्ति होती है। इसी तरह से आत्मा का परमात्मा से अलौकिक संबंध है। संसार में परमपिता परमात्मा ही एक ऐसा है जो मनुष्य के साथ हर पल संबंध निभाने के लिए तैयार रहता है। परमात्मा संसार का रचयिता है और निराकार है, उसका भौतिक शरीर नहीं है। त्वमेवमाता चपिता त्वमेव,त्वमेवबंधुश्चसखा त्वमेव।त्वमेवविद्या द्रविणंत्वमेव,त्वमेवसर्व मम देवदेव।।परमात्मा के लिए यह क्यों कहा गया है, इसके बारे में संसार के प्रत्येक प्राणी को विचार करना चाहिए। यह जाहिर है कि संसार में जो भी रिश्ते हैं वे सब विनाशी हैं और भौतिक संबंध होने के कारण मनुष्य का लगाव भौतिकता के स्तर से ही होता
अपने आपसे प्रेम करें और स्वयं को महत्वपूर्ण समझें। आईने में अपने को
देखकर मुस्कुराएं और खुद को पसंद करें।



* दूसरे से अपेक्षा न करें कि कोई आपके कार्य की तारीफ करे। ज्यादा
अपेक्षाएं रखने से आपको दु:ख के सिवाय कुछ हासिल नहीं होगा।



* खुद को सराहें और अपने कार्य को मन ही मन सराहना सीखें। इससे
आत्मविश्वास बढ़ेगा।



* विनम्र बनें, सदैव सौम्य व शांत हो वार्ता करें। उच्च स्वर या कटु
शब्दों का प्रयोग न करें।



* निजी खुशी जरूरी है, इसलिए जब भी समय मिले दिनभर में एक बार अवश्य वह
कार्य करें जिसे करना आपको सबसे अच्छा लगता हो।



* अपने साथियों व बॉस की कमियां न निकालें, बल्कि अपनी कमियों की तलाश
कर उन्हें दूर करने की कोशिश करें।



* क्रोध को नियंत्रित करना सीखें। जब ज्यादा गुस्सा आए तो तुरंत उस
माहौल से दूर होकर किसी अन्य काम में लग जाएं।



* सकारात्मक सोच के महत्व को समझें। जो कुछ सोचें उसे सकारात्मक रूप में
लें। कोई काम अगर पूरा नहीं होता या बात नहीं बनती तो उदास न हों।
नकारात्मक विचार मन में न लाएं।