Sunday, April 3, 2011

शिवरात्रि निराकार परमपिता शिव के दिव्य अलौकिक जन्म का स्मरण दिवस है।

काल चक्र अविरल गति से घूमता है। भूतकाल की घटनाओं की केवल स्मृति ही रह जाती है। उसी स्मृति को पुन: ताजा करने के लिए यादगारें बनाई जाती हैं , कथाएं लिखी जाती हैं और जन्म दिवस मनाए जाते हैं। इनमें हमारी श्रद्धा , प्रेम , स्नेह और सद्भावना का पुट होता है। परंतु एक वह दिन भी आ जाता है , जब श्रद्धा और स्नेह का अंत हो जाता है और रह जाती है केवल परंपरा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आज हमारे पर्व भी उन परंपराओं को निभाने मात्र के लिए ही मनाए जाने लगे हैं। भारत वर्ष अध्यात्म प्रधान देश है और जितने पर्व भारत में मनाए जाते हैं , शायद उतने अन्य किसी देश में नहीं मनाए जाते। ये त्योहार उन्हीं छिपी हुई आध्यात्मिक रश्मियों को जाग्रत करते हैं। शिवरात्रि भी हमारे विशिष्ट पर्वों में ऐसा ही स्थान रखता है।
महाशिवरात्रि का पर्व हमें शिव की याद दिलाता है। भारतवर्ष में भगवान शिव के लाखों मंदिर पाए जाते हैं और शायद ही कोई ऐसा मन्दिर हो जहां शिवलिंग न हो। शायद ही कोई ऐसा धर्मग्रंथ हो , जिसमें शिव का गायन न हो। भारत के कोने-कोने में निराकार ज्योतिबिंदु समान शिव की आराधना भिन्न-भिन्न नामों से की जाती है। अमरनाथ , विश्वनाथ , सोमनाथ , पशुपतिनाथ इत्यादि भगवान शिव के ही तो मंदिर हैं। गोपेश्वर एवं रामेश्वर जैसे विशाल शिव मंदिर इसी के साक्षी हैं। भारत से बाहर मक्का में संग-ए-असवद , मिस्त्र में ' ओसिरिस ' और बेबिलोन में ' शिअन ' नाम से की जाने वाली पूजा उसी निराकार ज्योतिबिंदु समान शिव के सम्मान की द्योतक है।
शिवरात्रि निराकार परमपिता शिव के दिव्य अलौकिक जन्म का स्मरण दिवस है। हम इस संसार में किसी का भी जन्मोत्सव मनाते हैं , तो उसे जन्म दिवस कहते हैं , भले ही वह रात्रि में पैदा हुआ हो। मानव जन्मोत्सव को जन्म रात्रि नहीं वरन जन्म दिवस के रूप में मनाते हैं , परंतु शिव के जन्म दिवस को शिवरात्रि ही कहते हैं। वास्तव में यहां शिव के साथ जुड़ी हुई रात्रि स्थूल अंधकार का वाचक नहीं है। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कल्प के अंत के समय व्याप्त घोर अज्ञानता और तम की प्रधानता का प्रतीक है। जब सृष्टि पर अज्ञान का अंधकार छाया होता है , काम-क्रोध आदि विकारों के वशीभूत मानव दु:खी व अशांत हो जाता है , धर्म अधर्म का रूप ले लेता है , भ्रष्टाचार का चारों ओर बोलबाला होता है , तब ज्ञान के सूर्य के समान शिव अज्ञानता रूपी अंधकार का विनाश करने के लिए प्रकट होते हैं।
परमात्मा अजन्मा है अर्थात अन्य आत्माओं के सदृश वे किसी भौतिक मां के गर्भ से जन्म नहीं लेते। वे स्वयं ही अपनी काया का सृजन करते हैं और स्वयं उसमें प्रतिष्ठित होते हैं। शिवलिंग उनके इसी गुण का प्रतीक है। ' स्वयंभू ' परमात्मा शिव प्रकृति को वश में करके साधारण वृद्ध तन का आधार लेते हैं और उस तन का नाम रखते हैं ' प्रजापिता ब्रह्मा ' । इसीलिए भक्त जन शिवलिंग की आराधना करते हैं। उन पर आक-धतूरा , बेल पत्र और दूधचढ़ाते हैं। आक के फूल एवं धतूरा चढ़ाने का रहस्य यह है कि अपने विकारों को उन्हें देकर हम निविर्कारी बन पवित्रता के व्रत का पालन करें। शिव संसार की समस्त आत्माओं को पवित्र बनाते हैं , उनका पथ-प्रदर्शन करते हैं और उन्हें परमधाम वापस ले जाते हैं , इसीलिए उन्हें सृष्टि , पालन और संहार का देवता माना जाता है , उन्हें आशुतोष व भोलानाथ कहते हैं। शिवरात्रि के दिन सिर्फ एक रोज उपवास कर लेने से परमात्मा का सामीप्य नहीं प्राप्त हो जाता। लेकिन यह उसके समीप जाने की आवश्यकता और उपाय की याद दिलाता है। इसी प्रकार एक रात जागरण कर लेने से कोई अविनाशी नहीं बन जाता। लेकिन इससे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने के प्रयास को बल मिलता है। आज जो कलियुग रूपी महाशिवरात्रि चल रही है , उसमें आत्मा को ज्ञान द्वारा जाग्रत करना ही सच्चा जागरण है। इस आध्यात्मिक जागरण से ही मुक्ति मिलती है।
यदि गौर करें तो शिव का पिंड रूपी प्रतीक चिन्ह शिवलिंग के रूप में सभी धर्मावलम्बियों द्वारा किसी न किसी रूप में मान्य है। यद्यपि मुसलमान भाई मूर्तिपूजा नहीं करते , लेकिन वे मक्का में संग-ए-असवद नामक पत्थर को आदर से चूमते हैं। इसी प्रकार ओल्ड टेस्टामेंट में मूसा ने जेहोवा का वर्णन किया है। वह ज्योतिबिर्न्दु परमात्मा का ही प्रतीक है। इस प्रकार विभिन्न धर्मों में एक ज्योति स्वरूप पिंड या पत्थर जैसा कोई न कोई प्रतीक अवश्य मौजूद है और उसके प्रति लोगों में गहरी आस्था देखने को मिलती है।

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