यूं तो शास्त्रों में और हमारे धार्मिक ग्रंथों में आत्मा के बारे में कहा गया है कि यह चैतन्य सत्ता है , परंतु हमारी यथार्थ पहचान हमें कौन बता सकता है ? असल में हमारा यथार्थ परिचय है क्या ? मैं एक चेतना हूं और इस शरीर द्वारा अभिव्यक्त होती हूं , यह तो मुझे समझ में आता है। परंतु समग्र रूप से मैं क्या हूं , यह मैं जान नहीं पाता हूं। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसे बहुत खोजने का प्रयास किया , परंतु अध्यात्म का सूत इतना उलझ गया कि अब सुलझाए नहीं सुलझ रहा है। हमारे कुछ धर्म ग्रंथों में ऐसा कहा गया है कि मनुष्य की आत्मा जब गर्भ में आती है तो उस समय उसे इस बात की स्मृति रहती है कि वह परमात्मा का ही अंश है और इसलिए वह ईश्वर से निरंतर संवाद करती रहती है। परंतु बच्चे का जन्म होते ही माया नगरी की माया उसकी आत्मिक स्मृति को विस्मृत कर देती है और वह संसार में शरीरधारियों और स्थूल वस्तुओं को अपने आसपास पाती है और उसी में उसकी बुद्धि उलझ जाती है। उसी प्रकार के संकल्प उसकी बुद्धि में जागृत होते रहते हैं। उसकी स्वयं की यथार्थ पहचान जो कि उसका संपूर्ण परिचय है , उसको वह भूल जाती है। चूंकि , वह यह समझती है कि वह केवल एक शरीरधारी है , इसलिए उसे शरीर और शरीर से संबंधित सभी पदार्थ - सुख सुविधा , वैभव आदि ही याद आते हैं और उन्हीं में उसकी बुद्धि रमण करती रहती है। परमात्मा उसका यथार्थ परिचय उसे बताते हैं कि तुम एक बिन्दु आत्मा हो जिसने इस शरीर का आधार कुछ निश्चित समय के लिए ही लिया है। इस शरीर द्वारा तुम सब कुछ उपभोग कर रहे हो , परंतु अपनी आत्मिक स्मृति में ना रहने के कारण तुम में इस देह का अभिमान बढ़ता ही जा रहा है। इसी के फलस्वरूप तुम अपने लिए विभिन्न प्रकार की परेशानियां उत्पन्न करते जा रहे हो। विकारों की छाया से आत्मा ग्रसित हो चुकी है और उसकी शक्तियां क्षीण हो चुकी हैं। देह के अभिमान के वश में तुमने देह के कई धर्म स्थापित कर दिए हैं , जिनको हिंदू , मुस्लिम , सिक्ख , ईसाई इत्यादि कहा जाता है। लेकिन असल में तो ये सब मात्र इस देह के ही धर्म हैं। आत्मा का धर्म तो शांति और पवित्रता है। देह के धर्म वे चाहे अलग हो सकते हैं , परंतु आत्मा का धर्म एक ही है और आत्मा रूप में हम सभी एक ईश्वर की संतान हैं क्योंकि ईश्वर ही एकमात्र ऐसा है जो जन्म मरण के चक्र में न आने के कारण , देह के बंधन से परे होने के कारण , देह के अभिमान से परे रहता है और आत्मा होने की हमें यथार्थ पहचान देता है। आमतौर पर हम यह सोचते हैं कि उक्त वस्तु या उक्त व्यक्ति के द्वारा हमें सुख और शांति की अनुभूति हो सकती है। परंतु यथार्थ में ऐसा नहीं है। सुख और शांति की जननी आत्मा स्वयं ही है , पदार्थ और व्यक्ति उसको शांति की अनुभूति नहीं करा सकती।
जब आत्मा को स्वयं की पहचान हो जाती है , तब उसे इस बात की भी जानकारी हो जाती है कि वह इस समय शक्तिहीनता की स्थिति में है , चूंकि यदि आज जरा सी भी कोई बात मेरी इच्छा के विरुद्ध होती है तो या तो मुझे क्रोध आता है या मैं फिर अवसादग्रस्त हो जाती हूं। लगातार इस जीवन को जीते हुए मैं मानसिक द्वंद्वों में ही अपने जीवन को खर्च कर देती हूं। और जीवन का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। परंतु जब मुझे अपनी यथार्थ पहचान होती है , तब मुझे पता लगता है कि मैं किस प्रकार स्वयं को बलशाली बना सकती हूं। जब मुझे आध्यात्मिक सत्ता से योगयुक्त रहने की कला आ जाती है तो मेरी आध्यात्मिक शक्तियों और दिव्य गुणों का विकास होना आरंभ हो जाता है। उसी मनुष्य का मान होता है जो गुणधारी होता है। इस शरीर का कोई मान नहीं है , यदि उसमें आत्मीय गुणों का समावेश नहीं है। समाज में भी उसी व्यक्ति को सम्मान प्राप्त होता है जो गुणवान है। अहंकारवश कोई व्यक्ति चाहे उस गुण की कद्र न भी करे , परंतु हृदय से वह भी उसकी महानता स्वीकार करेगा।
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