Sunday, April 3, 2011

निराकार ज्योति बिंदु स्वरूप शिव परमात्मा के दिव्य साक्षात्कार

आपने सुना होगा, हमारे शास्त्रों में लिखा है कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।' इसका एक भाव यह है कि जगत का बाहरी रूप और परिवेश, मनुष्य की अपनी ही आत्मिक चेतना, भावना एवं प्रकृति का परिप्रकाश व प्रतिफलन है। अगर मनुष्य का अन्त:करण स्वच्छ, शांत और सतोगुणी है, तो उसके प्रभाव से बाहरी जगत में उसके आसपास रहने वाले पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, पंच तत्व एवं अन्य मनुष्यों का स्वभाव भी प्रभावित तथा रूपांतरित होता है।

अगर किसी मनुष्य के भीतर उसके आंतरिक जगत में द्वंद, द्वेष, घृणा, हिंसा, भय, शोक, दुख और अशांति जैसे तत्वों का वास है, तो उसी के अनुरूप चिंतन, वचन, कर्म एवं व्यवहार उसके आसपास रहने वाले अन्य जीव आत्माओं में भी विकसित होता है और उनके जीवन को तनावपूर्ण, हिंसक, भयभीत और दुखी बना देता है।

प्राचीन काल में तपस्या में लीन ऋषि-मुनियों का जो पवित्र और शक्तिशाली मानसिक प्रकम्पन आश्रम के वातावरण को पवित्र बनाता था, वही साथ रहने वाले आसपास के हिंसक जंतुओं को भी अहिंसक एवं निर्भय बना देता था। हमारे प्राचीन काव्य शास्त्रों में मानव जीवन के साथ पेड़-पौधों एवं पशुओं के बीच के इस तादात्म्य का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है। कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतला में लिखा है कि शकुंतला भारी हृदय से जब अपने पिता के आश्रम से पति दुष्यंत के राज्य की ओर जाने के लिए सबसे विदाई लेती हैं, तब आश्रम की वनस्पतियों सहित सभी जीव-जंतु शोकाकुल हो उठते हैं।

आज अपने आसपास जो छल, अनैतिकता, धर्मांधता और भ्रष्टाचार हम देखते हैं, वह भी हमारी ही व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना का प्रतिफलन है। आतंकवाद, प्रदूषण या गृहयुद्ध जैसी आपदाएं उन्हीं से जन्म लेती हैं। काम, क्रोध, मोह और अहंकार में लिप्त आज का मानव अपने चरित्र और चिंतन को पतनशील होने से रोक नहीं पा रहा। इंद्रियों के प्रति उसकी अधीनता, नैतिकता की जगह भौतिकता और कर्म के ऊपर भोग को महत्व देने की उसकी वृत्ति उसकी सोच को नकारात्मकता की ओर ले जा रही है और वह स्वयं ही अपना शत्रु बन बैठा है।

आज मनुष्य की बाहरी वृत्तियां यदि उसकी आंतरिक या मूल प्रकृति (स्व) पर हावी हो रही हैं, तो इसका एक कारण यह भी है कि उसका 'स्व' बाहरी परिस्थितियों और उनके कारकों से कमजोर साबित हो रहा है। इस 'स्व' की स्थिति कमजोर होने का कारण है व्यक्ति के ज्ञान, गुण एवं क्षमताओं में कमी। तभी 'पर (पराई) स्थिति' या 'परिवेश' उसकी आत्मा को परवश और परतंत्र बना रही है।

व्यक्ति ही परिवार, समाज, देश और इस विश्व की इकाई है और उसी के संकल्प, आचरण और भावनाओं से पूरे समाज की शांति- अशांति, सुख- दुख और उन्नति-अवनति निर्धारित होती है -व्यक्ति ही समष्टि अर्थात समस्त विश्व को बेहतर या बदतर बनाने के लिए किसी ना किसी रूप में जिम्मेवार है। समाज में जो भी घटित होता है, उसमें हमारा किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ -परोक्ष या प्रत्यक्ष योगदान होता है। इसलिए सुखमय समाज या विश्व का नव निर्माण तो तभी होगा जब मानव की बुद्धि एवं संस्कारों को सकारात्मक बनाया जाए। इसके लिए मनुष्य का आध्यात्मिक सशक्तीकरण करना होगा। भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान, राजयोग, ध्यान एवं अनुशासित जीवन प्रणाली द्वारा यह संभव हो सकता है।

ऐसे आध्यात्मिक संस्कार द्वारा दुनिया को बेहतर बनाने की प्रक्रिया का एक प्रयास 1937में आरंभ किया था अविभाज्य भारत के सिंध राज्य स्थित हैदराबाद के प्रसिद्ध धार्मिक पुरुष दादा लेखराज कृपलानी ने, जो कि निराकार ज्योति बिंदु स्वरूप शिव परमात्मा के दिव्य साक्षात्कार एवं अनुभूति के उपरांत ईश्वर के साकार माध्यम के रूप में पिताश्री प्रजापिता बह्मा के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने समाज के अन्य लोगों को संस्कारित करने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की स्थापना की।

उन्होंने 'स्व' के परिवर्तन से विश्व परिवर्तन का आध्यात्मिक प्रवाह समस्त जगत में फैला कर लाखों अनुयायियों को आदर्श और पवित्र गृहस्थ जीवन का सहज मार्ग दिखाया। उन्होंने एक आध्यात्मिक क्रांति की और उसके द्वारा विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुंबकम की चेतना विकसित करने की प्रेरणा दी।

उनकी पावन स्मृति में बीते रविवार को विश्व भर में उनके अनुयायियों ने उनका 42वां अव्यक्त आरोहण वर्षगांठ दिवस का आयोजन किया, जिसमें विश्व शांति के लिए प्रार्थना और कामना की गई।

1 comment:

  1. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके.,
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

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