क्रोध की जड़ में काम है, महत्वाकांक्षा का होना या इच्छा करना मन का
स्वभाव है। मन का कार्य है। मन के अनुकूल कार्य न होने पर ही क्रोध होता
है। क्रोध से पूर्व मोह पैदा होता है और मोह से स्मरण शक्ति का विभ्रम
उत्पन्न होता है। जब स्मरण शक्ति भ्रमित होती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती
है। बुद्धि न हो तो विवेक कहां से आएगा और विवेक न हो तो व्यक्ति का
विनाश हो जाएगा। मन चंचल है, परिवर्तनशील है। मन की प्रकृति संकल्प-
विकल्प वाली है, इसीलिए मन के ऊपर बुद्धि की लगाम कसना जरूरी है।
विचारणीय यह है कि क्रोध क्यों आता है? यह प्रश्न आत्ममंथन का है। जब
हमारी कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ती है तो क्रोध जन्म
लेता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के मनोरथ की सिद्धि
में विघ्न डाले तो उस व्यक्ति पर क्रोध आता है।
जब हमारी आकांक्षा, इच्छा, कामना, विचार के अनुसार कोई कार्य सिद्ध नहीं
होता तब निराशा, तनाव एवं असंतोष जैसे भाव हमारे मन को आंदोलित करते रहते
हैं। ये नकारात्मक विचार कुछ सीमा तक हमारा विवेक नष्ट करते हैं। जब
नियंत्रण नहीं रहता तो क्रोध उबल पड़ता है।
क्रोध और विवेक एक दूसरे के प्रबल विरोधी हैं, जैसे अंधकार और प्रकाश।
प्रकाश की एक किरण के आते ही अंधकार मिट जाता है। उसी प्रकार विवेक
जाग्रत होते ही क्रोध अदृश्य होने लगता है। जब मनुष्य का विवेक नष्ट हो
जाता है तब व्यक्ति उचित-अनुचित का बोध करने में असमर्थ हो जाता है।
जीवन में अनेक बार निराशा से उपजी हीन भावना के कारण भी क्रोध आता है।
अपनी किसी कमी या हीनता को छुपाने के लिए लोग क्रोध का सहारा लेते हैं,
ताकि अपनी श्रेष्ठता बनाए रखें। मनुष्य समझ ही नहीं पाता कि कोई बात कहने
या करने योग्य है भी या नहीं। अनेक बार क्रोध का कारण यह भी होता है कि
हमारे अंदर हिंसा के भाव धीरे-धीरे पनपते रहते हैं। उदाहरण के लिए
प्रतिद्वंद्विता, परस्पर विरोध, कटुता, ईर्ष्या, शत्रुता आदि जैसा कोई
नकारात्मक भाव यदि हमारे मन में जड़ जमाए बैठा है, तो निश्चित है कि वह
किसी स्टेज पर क्रोध का रूप धारण कर लेगा। यह सब बुद्धि की कमी और जलन की
भावना के उदीप्त होने के कारण होगा।
तामसिक तत्वों की उग्रता के कारण बुद्धि भ्रमित हो जाती है और फिर किसी
का अनिष्ट करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। क्रोध का चरित्र ध्वंसात्मक
है। यदि शत्रुता के स्थान पर प्रेम, द्वेष के स्थान पर सौहार्द और आत्मीय
भाव का सृजन होगा तो हिंसा समाप्त होगी। क्रोध भी खत्म होगा। जब हमारे
अंदर हिंसा की भावना दबी रहेगी तो क्रोध भी किसी ना किसी रूप में जुड़ा
रहेगा। केवल क्रोध को दबाने से क्रोध का अंत नहीं होता।
क्रोध पतनगामी है। इसीलिए यह अक्सर पराभव का कारण बन जाता है। पराभव होगा
तो विनाश भी होगा। इसीलिए क्रोध से सावधान रहना आवश्यक है। मानव जीवन में
अनेक प्रकार के मनोरोग हैं, परंतु क्रोध उनमें सबसे शक्तिशाली मनोविकार
है।
इसलिए जब क्रोध आए, तो आप थोड़ी देर के लिए मन उधर से हटा दें। मनपसंद
गीत सुनने का प्रयास करें या टहलने निकल जाएं। इस तरह क्रोध से अपना बचाव
किया जा सकता है। एक बात का ध्यान और रखना चाहिए। जब कोई अच्छा काम करने
का विचार आए तो उसी समय कर लेना चाहिए और बुरा विचार आए तो उसे टाल देना
चाहिए। परन्तु ऐसे प्रयास तभी सफल होंगे जब हम अपनी इंद्रियों पर काबू
पाने में सक्षम हों, हमारे भीतर इच्छाशक्ति हो।
एक तरीका और है। अनुभव बताता है कि सादगी पूर्ण व्यवहार से भी मन में
प्रेम की भावना बढ़ती है और क्रोध में कमी आती है। और मन- वाणी पर भी
नियंत्रण रहता है। इसीलिए कहा गया है :अक्रोधेन जयेत्क्रोधम्! यानी क्रोध
को अक्रोध से जीतो।
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