Tuesday, February 22, 2011

मन, बुद्धि और संस्कार

मन आत्मा की चिंतन शक्ति है जो कि विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न करती है- अच्छे, बुरे, व्यर्थ, साधारण, इत्यादि। कुछ विचार स्वैच्छिक होते हैं, और कुछ अनियंत्रित, जो कि पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब के कारण उत्पन्न होते हैं। कुछ विचार शब्दों तथा कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं, जबकि कुछ विचार केवल विचार ही रह जाते हैं। विचार बीज की तरह होते हैं- शब्दों और कर्मों रूपी वृक्ष से कहीं अधिक शक्तिशाली। जब शरीर-रहित आत्माएं शांतिधाम या परमधाम में होती हैं तो वे विचार-शून्य होती हैं। ५००० वर्ष के मनुष्य सृष्टि चक्र में पहले दो युगों अर्थात् सतयुग और त्रेतायुग में देवतायें केवल संकल्पशक्ति का सकारात्मक रूप में उपयोग करते थे। इसके परिणामस्वरूप, अधिक ऊर्जा की बचत होती है, जिससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, किन्तु जब हम देह अभिमानी बन जाते हैं, हम अपनी संकल्प शक्ति से अधिक शब्दों और कर्मों का उपयोग करते हैं, वह भी नकारात्मक रूप में। इससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का पतन होता है, और कलियुग के अंत तक यह पतन सबसे अधिक हो जाता है। निराकार भगवान शिव, जो कि जन्म-मरण के चक्र में नहीं आते, के इस पृथ्वी पर दिव्य अवतरण लेने पर ही हम अपने विचारों, वाणी और कर्मों पर नियंत्रण करना सीखते हैं, और पतित मनुष्यों से बदलकर गुणवान देवता बन जाते हैं। मन एक समुद्र या झील की भांति है, जो विभिन्न प्रकार की लहरें उत्पन्न करता है- कभी ऊंची, कभी नीची, और कभी कोई लहरें नहीं होती. केवल शांति होती है। मन की तुलना ब्रह्मा (स्थापनाकर्ता) से की जा सकती है।

बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है। कोई आत्मा सारे दिन या सारी रात में विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न कर सकती है, किन्तु केवल बुद्धि द्वारा निर्णय लिये जाने पर ही आत्मा उन विचारों को शब्दों या कर्मों में ढ़ालती है। सकारात्मक, नकारात्मक या व्यर्थ विचारों को उत्पन्न करना या केवल विचार-शून्य अवस्था में रहने का निर्णय भी बुद्धि द्वारा ही लिया जाता है। यह बुद्धि ही है जो कि ८४ जन्मों वाले ५००० वर्षीय मनुष्य सृष्टि चक्र के दौरान आत्मा की यात्रा का मार्ग निर्धारित करती है। बुद्धि उस जौहरी की तरह है, जो कि शुद्धता और मूल्य के लिए रत्नों और हीरों को परखता है। बुद्धि की तुलना शंकर (विनाशकर्ता) से की जा सकती है, जो कि पुरातन संस्कारों, विकारों और पुरातन सृष्टि का विनाश करके नई दुनिया की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

किये हुए अच्छे बुरे कर्मों का जो मन बुद्धि रूपी आत्मा के ऊपर प्रभाव पड़ता है उसको संस्कार शक्ति कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि बुद्धि अपने शरीर का उपयोग बारंबार परिश्रम करने के लिए करती है, तो आत्मा परिश्रमी व्यक्ति के संस्कार धारण कर लेती है। यदि बुद्धि बारंबार सोने और आराम करने का निर्णय लेती है और परिश्रम एवं कसरत से बचती है, तो आत्मा आलस्य का संस्कार धारण कर लेती है। अतः, यह आत्मा पर निर्भर करता है कि वह अच्छे या बुरे संस्कार धारण करे। आत्मा अपनी संकल्प तथा निर्णय शक्ति (अर्थात् मन तथा बुद्धि) के आधार पर जो भी संस्कार प्राप्त करती है, वो आत्मा में उसी प्रकार जमा हो जाते हैं, जिस प्रकार किसी कंम्पयूटर के सी.पी.यू में विभिन्न फाईल या फोल्डर जमा हो जाते हैं। ये संस्कार आत्मा के अगले जन्म में भी उसके साथ रहते हैं, और अगले जन्म में भी कुछ हद तक उसके विचारों, वाणी और कर्मों को प्रभावित करते हैं। किसी आत्मा के अंदर पिछले जन्म में हासिल किये गये बुरे संस्कार होने के बावजूद, वह अच्छी संगत, मार्गदर्शन, भोजन, वातावरण, इत्यादि के द्वारा इन संस्कारों को बदल सकती है। जब ५००० वर्ष के सृष्टि-चक्र के अंतिम जन्म में सभी आत्माओं के संस्कार लगभग पतित बन जाते हैं, तब परमात्मा शिव परमधाम से आकर किसी साधारण मनुष्य तन में अवतरित होते हैं, और सहज राजयोग द्वारा हमें अपने संस्कारों को बदलने की शिक्षा और शक्ति प्रदान करते हैं। आत्मा के संस्कारों की तुलना विष्णु (पालनकर्ता) से की जा सकती है।

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