5000 स्कूलों कॉलेजों में और 800 जेलों कारगृहो में नैतिक मूल्यों का पाठ पढाकर इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में नाम दर्ज है
Sunday, June 5, 2011
परमपिता परमात्मा शिव बाबा ब्रह्माकुमारी
शिव सर्वआत्माओं के परमपिता हैं
परमपिता परमात्मा शिव का यही परिचय यदि सर्व मनुष्यात्माओं को दिया जाए
तो सभी सम्प्रदायों को एक सूत्र में बाँधा जा सकता है, क्योंकि परमात्मा
शिव का स्मृतिचि- शिवलिंग के रूप में सर्वत्र सर्वधर्मावलंबियों द्वारा
मान्य है। यद्यपि मुसलमान भाई मूर्ति पूजा नहीं करते हैं तथापिवे मक्का
में संग-ए-असवद नामक पत्थर को आदर से चूमते हैं। क्योंकि उनका यह दृढ़
विश्वास है कि यह भगवान का भेजा हुआ है। अतः यदि उन्हें यह मालूम पड़ जाए
कि खुदा अथवा भगवान शिव एक ही हैं तो दोनों धर्मों से भावनात्मक एकता हो
सकती है। इसी प्रकार ओल्ड टेस्टामेंट में मूसा ने जेहोवा का वर्णन किया
है। वह ज्योतिर्बिंदु परमात्मा का ही यादगार है। इस प्रकार विभिन्न
धर्मों के बीच मैत्री भावना स्थापित हो सकती है।
रामेश्वरम् में राम के ईश्वर शिव, वृंदावन में श्रीकृष्ण के ईष्ट
गोपेश्वर तथा एलीफेंटा में त्रिमूर्ति शिव के चित्रों से स्पष्ट है कि
सर्वात्माओं के आराध्य परमपिता परमात्मा शिव ही हैं। शिवरात्रि का
त्योहार सभी धर्मों का त्योहार है तथा सभी धर्मवालों के लिए भारतवर्ष
तीर्थ है। यदि इस प्रकार का परिचय दिया जाता है तो विश्व का इतिहास ही
कुछ और होता तथा साम्प्रदायिक दंगे, धार्मिक मतभेद, रंगभेद, जातिभेद
इत्यादि नहीं होते। चहुँओर भ्रातृत्व की भावना होती।
आज पुनः वही घड़ी है, वही दशा है, वही रात्रि है जब मानव समाज पतन की चरम
सीमा तक पहुँच चुका है। ऐसे समय में कल्प की महानतम घटना तथा दिव्य संदेश
सुनाते हुए हमें अति हर्ष हो रहा है कि कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के
इस संगमयुग पर ज्ञान-सागर, प्रेम वकरुणा के सागर, पतित-पावन, स्वयंभू
परमात्मा शिव हम मनुष्यात्माओं की बुझी हुई ज्योति जगाने हेतु अवतरित हो
चुके हैं। वे साकार प्रजापिता ब्रह्मा के माध्यम द्वारा सहज ज्ञान व सहज
राजयोग की शिक्षा देकर विकारों के बंधन से मुक्त कर निर्विकारी पावन देव
पद की प्राप्ति कराकर दैवी स्वराज्य की पुनः स्थापना करा रहे हैं।
Saturday, June 4, 2011
योग का अति सरल अर्थ है -
योग का अति सरल अर्थ है - किसी की याद. किसी भी याद आना या किसी को याद करना - यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है. मन जिस विषय पर सोचता है, उसी के साथ उस आत्मा का योग है. फिर वह चाहे व्यक्ति, वस्तु, वौभव या परिस्थिति हो या परमात्मा ही क्यों न हो. अब मन कहाँ-कहाँ जा सकता है, मन का कहीं भी जाने का आधार क्या हैं ? संसार में करोड़ो मनुष्य है लेकिन मन सभी के विषय में नहीं सोचता है. मन उसी के बारें में सोचेगा, जिसका उसे परिचय हो तो पहला आधार है परिचय. फिर जिसके साथ सम्बन्ध तीसरा आधार है स्नेह. जिससे स्नेह होता है उसके पास मन अपने आप चला जाता है. चौथा आधार है प्राप्ति. जहाँ से किसी को प्राप्ति होगी वहाँ से वह अपना मन हटाना ही नही चाहेंगा. तो किसी की भी याद के लिए मुख्य चार आधार है - परिचय, सम्बधन्ध, स्नेह और प्रापित. इनहीं चा आधारों के कारण मनुष्य की याद सदा बदलती ही रहती है
तो प्रभु के चरणों में बैठकर प्रभु-भक्ति मॉंगो । प्रीु के चरणों में बैठने का सुख, उनके चरणों में भक्ती का आनंद अद्भूत है । प्रभू से मांगना है तो सत्सं
तो प्रभु के चरणों में बैठकर प्रभु-भक्ति मॉंगो । प्रीु के चरणों में बैठने का सुख, उनके चरणों में भक्ती का आनंद अद्भूत है । प्रभू से मांगना है तो सत्संग मांगना, प्रभु-भक्ती मांगना । अभी तो तुम उससे धन-सम्पत्ति मांगते हो, संसार का वैभव मॉंगते हो, इधर-उधर का कूडा-करकट मांगते हो । अरे, वह तो भाग्य का विषय है जो मिलना है वह तो मिलना ही है । ना मांगो तब भी मिलना है । कितना मिलना है- यह तो जन्म से पूर्व ही जन्म की पुस्तिका में लिख दिया जाता है । जो मिलने ही वाला है, उसे क्या मांगना ? अगर तुम्हारा पैसा बैंक के खाते में जमा है तो तुम्हारा दुश्मन भी काउंटर पर बैठा हो तो उसे भी देना पडेगा, और यदि खाते में कुछ भी जमा नहीं है तथा तुम्हारा अपना ही लडका काउंटर पर बैठा हो, तो वह भी नहीं दे पायेगा ।
प्रभु के चरणों में बैठकर इतनी ही प्रार्थना करना कि हे प्रभु ! तू मुझे हमेशा अपने चरणों में रखना । भगवान से चरण मांगना, उनका आचरण मांगना, उन जैसा समाधि-मरण मांगना, उन जैसा परम जागरण मांगना, क्योंकि जीवन की सब समृद्धि भगवान के श्रीचरणों में ही बसती है । भगवान से कहना- प्रभु ! तूने जो हजारों- लाखों रुपये दिए हैं उसमें से कुछ लाख, कुछ हजार कम करना है तो कर लेना, जो सैकडों रिश्तेदार दिए हैं उनमे से कुछ कम करना है तो कर लेना, जो धन-वैभव, सुख-सुविधा दी है उसमें कुछ कटौती करनी है तो कर लेना, जो बडा भारी मकान व लम्बा-चौडा व्यापार दिया है थोडा बहुत कम करना है तो कर लेना लेकिन मेरे भगवन् ! मेरी श्रद्धा को, मेरी भक्ती को, मेरी पूजाको कभी कम मत करना । मेश्री श्रद्धा-भक्ति को हमेशा बढाते रहना । श्रद्धा बढेगी तो सुख भी बढेगा क्योंकि श्रद्धा सुख का द्वार है ।
परमात्मा तो तुम्हारे द्वार पर ही खडा है लेकिन तुम इतने अहंकारी, अभिमानी हो कि उसके स्वागत में, उसकी अगवानी में चार कदम भी नहीं चल रहे हो । परमात्मा तु
परमात्मा तो तुम्हारे द्वार पर ही खडा है लेकिन तुम इतने अहंकारी, अभिमानी हो कि उसके स्वागत में, उसकी अगवानी में चार कदम भी नहीं चल रहे हो । परमात्मा तुमसे बहूत दूर नहीं है । वह तो तुम्हारे इर्द-गिर्द, तुम्हारे पास-पडौस में ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । अहंकार के महल से बाहर निकलकर जरा एक बार झांककर देखो तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा है । तुम्हें तो सिर्फ चार कदम ही चलना है । प्रभु बडा दयालु है । तुम चार कदम उसकी तरफ चलोगे, वह हजार कदम तुम्हारी तरफ चलेगा । तुम मंदिर क्यों जाते हो ? मंदिर जाने का अर्थ क्या है ? मंदिर जाने का इतना ही अर्थ है- प्रभु कहते है, तुम घर से निकलकर मंदिर तक आओ तो मैं सिद्धालय से उतरकर मंदिर तक आ जाऊंगा । यही तो चार और हजार कदम का गणित है । तुम्हारा घर मंदिर से कितनी ही दूर क्यों न हो, वह सिद्धालय के सामने चार कदम से ज्यादा दूर नहीं हो सकता । तो तुम चार कदम चलने की ईमानदारी, साहस तो दिखाओ, फिर यदि वह हजार कदम चलकर तुम्हारी तरफ न आये तो कहना । तुम घर से निकलकर मंदिर तक तो आओ फिर यदि वह सिद्धालय से उतरकर तुम तक न आए तो कहना ।
तुम ही परमात्मा तक नहीं पहुँचते हो, परमात्मा भी तुम तक पहूँचता है । तुम ही उसे नहीं पुकारते हो, वह भी तुम्हें पुकारता है । तुम ही उसके पीछे-पीछे नहीं भागते हो, वह भी तुम्हारे पीछे-पीछे भागता है । मनुष्य ही परमात्मा तक नहीं पहूँचता । जब भी मनुष्य तैयार होता है, खुद परमात्मा ही मनुष्य तक पहूँच आता है । जब भी मनुष्य तैयार होता है, खुद परमात्मा ही मनुष्य तक पहूँच आता है । तुम क्या जाओगे उस तक । तुममें हिम्मत ही कहॉं है इतनी ? वो ही तुम तक आता है ।
तुम्हें तो सिर्फ एक भक्ति समर्पण की माला तैयार करनी है और जिस दिन तुम्हारी यह जीवन समर्पण की माला तैयार हो जायेगी, प्रभु खुद ही तुम्हारे सामने गर्दन कर देंगे । तुम प्रभु की गर्दन में माला नहीं डालोगे अपितु प्रभू ही माला में गर्दन डाल देंगे । तुम तो बहूत बौने लोग हो, तुम तो बहुत छोटे-छोटे लोग हो, प्रभु तो बडे विराट है, महान है, ऊंचे हैं । एवरेस्ट की चोट पर भी खडे होकर यदि तुम उनकी गर्दन तक नहीं पहूँच सकते । तुम्हें तो केवल माला तैयार करनी है । माला तैयार होते ही उसमें मालिक की गर्दन आपों-आप आ जायेगी । लेकिन तुम बडे बेईमान हो, अभी तो तुम माला तैयार करने में लगे हुए हो ।
कथनी और करनी की एकरुपता ही धर्म है । धर्म दुकान पर बेचने और खरीदने की वस्तु नहीं है । धर्म अपने को मिटा देने की प्रक्रिया हैं । होश ही धर्म है । होश में किया गया हर कर्म पूजा बन जाता है । होश में चलना प्रभु की परिक्रमा लगाने जैसा है । होश में सोना प्रभु को दण्डवत करने जैसा है । होश में बोलना प्रभु का कीर्तन करने जैसा है, होश में कुछ भी सुनना कथा श्रवण जैसा है । होश में खुली आँखों से कुछ भी देखना प्रभु दर्शन जैसा है । होश में जीने वाला कोई पाप नहीं करता है । दुनिया में जितने पाप हो रहे हैं वे सब बेहोशी में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं, मूर्च्छा में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं । होश में तुम किसी को गाली नहीं दे सकते, होश में तुम किसी की हत्या नहीं कर सकते । गाली और हत्या बेहोशी की देन है ।
Wednesday, June 1, 2011
कथनी और करनी की एकरुपता ही धर्म है । धर्म दुकान पर बेचने और खरीदने की वस्तु नहीं है । धर्म अपने को मिटा देने की प्रक्रिया हैं । महावीर ने कहा : होश ही
कथनी और करनी की एकरुपता ही धर्म है । धर्म दुकान पर बेचने और खरीदने की वस्तु नहीं है । धर्म अपने को मिटा देने की प्रक्रिया हैं । महावीर ने कहा : होश ही धर्म है । महावीर कहते हैं : होश में किया गया हर कर्म पूजा बन जाता है । होश में चलना प्रभु की परिक्रमा लगाने जैसा है । होश में सोना प्रभु को दण्डवत करने जैसा है । होश में बोलना प्रभु का कीर्तन करने जैसा है, होश में कुछ भी सुनना कथा श्रवण जैसा है । होश में खुली आँखों से कुछ भी देखना प्रभु दर्शन जैसा है । होश में जीने वाला कोई पाप नहीं करता है । दुनिया में जितने पाप हो रहे हैं वे सब बेहोशी में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं, मूर्च्छा में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं । होश में तुम किसी को गाली नहीं दे सकते, होश में तुम किसी की हत्या नहीं कर सकते । गाली और हत्या बेहोशी की देन है ।
महावीर की देशना एकदम सीधी-सादी है लेकिन आज हमने उसे जटिल बना दिया है । इतना जटिल की अब लोग उससे पीछे हटने लगे हैं । महावीर एक दम सरल हैं, उनके उपदेश और भी सरल हैं लेकिन उनके तथाकथित अनुयायी बडे कठिन हैं और उन कठिन अनुयायियों ने महावीर और उनके धर्म को भी कठिन और जटिल बना दिया है । जैन धर्म के पिछडेपन का यही एक कारण है । जिस धर्म में अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह जैसे शाश्वत स्वर हों और वही धर्म सिकुड जाये बात समझ में नहीं आती है । जैन धर्म के पिछडेपन का कारण यही है कि जैन धर्म के सिद्धान्त तो अच्छे हैं लेकिन उनकी पैकिंग अच्छी नहीं है, प्रस्तुति अच्छी नहीं है । जमाना विज्ञापन और पैकिंग का है । किसी दुकान का माल कितना ही अच्छा क्यों ना हो, यदि उसकी पैकिंग अच्छी ना हो तो पैकिंग आकर्षक न हो तो दुकान चलती नहीं है । जैन धर्म के पास यही वजह है कि जैनियों की अच्छी चीज भी धूल-धूसरित हो रही है । अटाले में पडी धूल खा रही है । समय की नजाकत को पहचानिए और समय के साथ चलने की आदत डालिए । और हॉं, हो सके तो खुद भी सरल बनिए । क्योंकि महावीर कहते हैं चित्त की सरलता ही धर्म है, चरित्र की सरलता ही जीवन है । सरलता कैसी होती है, इसे गांधीजी के एक उदाहरण से समझें ।
कहते हैं एक बार गांधी जी लोकल गाडी में चंपारण से बतिया गॉंव जा रहे थे । वहॉं उनकी एक सार्वजनिक सभा थी । जिसे उन्हें सम्बोधित करना था । गांधी जी तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार थे । जगह मिल गई तो थोडा-सा पैर फैलाकर के लेट गये । किसी स्टेशन पर गाडी रुकी तो एक ग्रामीण युवक भी उसी डिब्बे में चढ आया । गांधी जी तो अभी सो रहे थे और उस युवक को बैठने के लिए जगह चाहिए थी । गांधी जी को सोता देखकर उस युवक ने गांधी को धक्का लगाते हुए कहा ऐ बुढ्ढे ! तेरे बाप की गाडी है क्या ? जो लम्बे पैर पसारकर सो रहा है, चल उठ, सीधा होकर बैठ । महात्मा गांधी तुरन्त उठ गये और चुपचाप शांत भाव से बैठ गये । इसको कहते हैं "सरलता' गांधी उत्तेजित नहीं हुए, शांत रहे । कुछ बोले भी नहीं, चुप रहे । वह युवक भी गांधी जी के पास ही पैर पसार कर बैठ गया ।
थोडी देर बाद उसने भजन गाना शुरु किया । भजन के बोल थे - "धन-धन गांधी तेरा अवतार, दुखियों के दु:ख काटन हार ।' धन-धन गांधी तेरा अवतार । गांधी जी भी यह भजन सुन रहे थे । दरअसल वह युवक भी गांधी के दर्शन करने और उन्हें सुनने के लिए बतिया गॉंव जा रहा था । युवक का भजन पूरा हुआ । गांधी जी ने भी भजन का पूरा आनंद लिया । वह बोले कुछ नहीं । यह है सरलता । अब तक युवक का भजन पूरा हो चुका था, उधर गाडी भी अपनी रफ्तार से भाग रही थी । बतिया गॉंव के करीब गाडी पहुँची तो युवक ने गांधी जी से पूछा "ए बुड्ढे ! तूने महात्मा गांधी कानाम सुना है ? मैं उनका दर्शन और प्रवचन सुनने जा रहा हूँ, वो बहूत अच्छे इंसान हैं ।
संत दर्शन के लिए उठा एक-एक कदम एक-एक यज्ञ के बराबर होता है । संत बडे करुणाशील होते हैं । संत बडे दयालु होते हैं । वे तुम्हारे कल्याण के लिए ही तपस्याएं करते हैं । जैसे अहिल्या उद्धार के लिए श्रीराम स्वयं अहिल्या के द्वार पर गये थे वैसे ही तुम्हारे उद्धार के लिए संत तुम्हारे द्वार आते हैं । तुम ही अहिल्या हो और संत राम के अवतार हैं । संत तो हरिद्वार है । और सत्संग गंगा-स्नान है, हर की पेडी है । सत्संग का फल तो बैकुंठ है ।
संत हरिद्वार : सत्संग गंगा स्नान
एक महिला ने प्रवचन-कथा में सुना कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है, क्योंकि संत हरिद्वार है और सत्संग गंगा स्नान है । दूसरे दिन जाकर उसने अपपने पति से कहा- देखो, एक बहुत बडे संत आये हैं और उनका सत्संग चल रहा है । सारा गांव सत्संग का लाभ ले रहा है । बडा आनंद बरस रहा है, तुम भी सत्संग का लाभ लो क्योंकि सत्संग का फल बैकुण्ठ है । पत्नी के विशेष आग्रह पर वह दूसरे दिन सत्संग में गया । वहॉं जाकर सत्संग में बैठा और 10-15 मिनट बाद बार-बार इधर-उधर देखने लगा कि बैकुण्ठ ले जाने वाला कोई विमान आया या नहीं । घंटा भर वह बैठा रहा वहॉं । विमान कहॉं से आना था ? जब उसे लगा कि अब कोई विमान आने वाला नहीं है, कोई बैकुण्ठ मिलने वाला नहीं है तो गुस्से से उठा और संत को भला-बुरा कहते-कहते सत्संग केबाहर निकल गया ।
घर जा रहा था । गुस्से में तो था ही । रास्ते में नारदजी मिल गये । नारद ने पूछा- भाई ! क्या बात है ? किसे गाली दे रहे हो ? बोला- ये संत लोग बडे धोखेबाज होते हैं । जनता को गुमराह करते हैं कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । अरे ! मैं वहॉं घंटा भर बैठा, पर वहॉं बैकुण्ठ तो क्या एक कप चाय भी नहीं मिली । उस आदमी ने नारद से पूछा कि आप ही बताइये सत्संग का क्या महत्व है ? क्या सत्संग से वाकई में बैकुण्ठ मिलता है । नारद ने कहा : भाई ! सत्संग तो मैं भी करता हूँ लेकिन सत्संग का महत्व मुझे भी नहीं मालूम । नारद ने कहा- अच्छा ऐसा करते हैं शंकरजी से चलकर पूछते हैं, वे ही बतायेंगे कि सत्संग का क्या महत्व है ? नारद उस व्यक्ति को लेकर शंकर जी के पास पहुंचे । शंकरजी से नारद ने पूछा : महाराज सत्संग का महत्व बताइये- यह व्यक्ति जानना चाहता है । शंकर जी बोले : भाई सत्संग का महत्व मैं भी नहींे जानता । अच्छा ! हम ब्रह्मा जी के पास चलते हैं । वे ही सत्संग का महत्व बतायेंगे । शंकरजी, नारद और वह व्यक्ति तीनों चलकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे भी यही प्रश्न किया । सत्संग का क्या महत्व है ? यह बताइये । ब्रह्मा जी तो मुश्किल में पड गये । बोले - भाई, मुझे तो मालूम नहीं । इसका उत्तर तो विष्णुजी ही दे सकते हैं । अपन विष्णु के पास चलते हैं ।
ये सभी बैकुण्ठधाम पहूंचे तो वहॉं विष्णुजी विराजमान थे । विष्णुजी ने देखा कि आज तो बडे-बडे महापुरुष एक साथ आये हैं । कारण पूछा तो नारद ने कहा- भगवन ! यह व्यक्ति सत्संगक का महत्व जानना चाहता है और हममें से किसी को सत्संग का महत्व मालूम नहीं है इसलिए आपके पास आये हैं । कृपया, आप सत्संग का महत्व समझायें । विष्णु जी ने उसी व्यक्ति से पूछा - बोल भाई ! तूने अभी तक सत्संग का क्या महत्व सुना था ? उस व्यक्ति ने कहा- मैंने सुना था कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । मैंने घंटे भर का सत्संग किया, पर मुझे तो कोई बैकुण्ठ नहीं मिला । विष्णुजी ने उसी व्यक्ति से पूछा- बोल भाई ! तूने अभी तक सत्संग का क्या महत्व सुना था ? उस व्यक्ति ने कहा- मैंने सुना था कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । मैंने घंटे भर का सत्संग किया, पर मुझे तो कोई बैकण्ठ नहीं मिला । विष्णुजी ने उसके कान पकडकर कहा- अरे भोले प्राणी ! साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, महेश तेरे सामने खडे हैं - तो यह बैकुण्ठ नहीं तो क्या तेरा घर है ? अगर तू घंटे भर का सत्संग नही करता तो तू क्या यहॉं तक आ सकता था ? देख घंटे भर के सत्संग का फल कि तीन-तीन देव तेरे सामने खडे हैं । श्रद्धा बडी चीज है । श्रद्धा ही फल देती है ।
तो, सत्संग का जीवन में बडा गहरा महत्व है । संतों की अंगुली थामकर रखो । जैसे बन्दर का बालक अपनी मॉं से चिपका रहता है, वैसे ही तुम संतों से चिपके रहो, जुडे रहो । बस तुम्हारा इसी में कल्याण है । भीड भरे मेले में जब तक बच्चे की अंगुली मॉं के हाथ में होती है तब तक बालक का जीवन सुरक्षित होता है लेकिन ज्यों ही मॉं की अंगुली छूटती है तो बालक भीड के संकट में खो जाता है । जब तक तुम्हारी जीवन की अंगुली किसी संतने शाम ने थाम रखी है, तब तक संसार का कोई थपेडा तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड सकता और अगर अंगुली छूट गई तो फि रोना ही रोना शेष रह जायेगा ।
तो, उस युवक ने सोचा - गलत जगह आ गये । यह आदमी तो गडबड है ही, लगता है इसकी पत्नी भी बडी बुद्धू है । उसने यह भी नहीं पूछा कि धूप में बैठे हो तो लालटेन की क्या जरुरत पड गई ? ऊपर वाले ने भी क्या जोडी बिठाई है । दोन्हों ही एक से हैं । वह मन ही मन कबीर को कोस रहा था । युवक कबीर से कहता है, मेरी समस्या का समाधान करें । मुझे देर हो रही है, मुझे जल्दी जाना है, कबीर ने कहा- करुंगा, थोडी प्रतीक्षा करो । कबीर ने अपनी पत्नी को निर्देश दिया किवह दो कटोरे दूध लेकर आये । पत्नी रसोई में गई- दूध में चीनी डाली, और दो कटोरे दूध से भरकर कबीर के सामने
संत हरिद्वार : सत्संग गंगा स्नान
एक महिला ने प्रवचन-कथा में सुना कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है, क्योंकि संत हरिद्वार है और सत्संग गंगा स्नान है । दूसरे दिन जाकर उसने अपपने पति से कहा- देखो, एक बहुत बडे संत आये हैं और उनका सत्संग चल रहा है । सारा गांव सत्संग का लाभ ले रहा है । बडा आनंद बरस रहा है, तुम भी सत्संग का लाभ लो क्योंकि सत्संग का फल बैकुण्ठ है । पत्नी के विशेष आग्रह पर वह दूसरे दिन सत्संग में गया । वहॉं जाकर सत्संग में बैठा और 10-15 मिनट बाद बार-बार इधर-उधर देखने लगा कि बैकुण्ठ ले जाने वाला कोई विमान आया या नहीं । घंटा भर वह बैठा रहा वहॉं । विमान कहॉं से आना था ? जब उसे लगा कि अब कोई विमान आने वाला नहीं है, कोई बैकुण्ठ मिलने वाला नहीं है तो गुस्से से उठा और संत को भला-बुरा कहते-कहते सत्संग केबाहर निकल गया ।
घर जा रहा था । गुस्से में तो था ही । रास्ते में नारदजी मिल गये । नारद ने पूछा- भाई ! क्या बात है ? किसे गाली दे रहे हो ? बोला- ये संत लोग बडे धोखेबाज होते हैं । जनता को गुमराह करते हैं कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । अरे ! मैं वहॉं घंटा भर बैठा, पर वहॉं बैकुण्ठ तो क्या एक कप चाय भी नहीं मिली । उस आदमी ने नारद से पूछा कि आप ही बताइये सत्संग का क्या महत्व है ? क्या सत्संग से वाकई में बैकुण्ठ मिलता है । नारद ने कहा : भाई ! सत्संग तो मैं भी करता हूँ लेकिन सत्संग का महत्व मुझे भी नहीं मालूम । नारद ने कहा- अच्छा ऐसा करते हैं शंकरजी से चलकर पूछते हैं, वे ही बतायेंगे कि सत्संग का क्या महत्व है ? नारद उस व्यक्ति को लेकर शंकर जी के पास पहुंचे । शंकरजी से नारद ने पूछा : महाराज सत्संग का महत्व बताइये- यह व्यक्ति जानना चाहता है । शंकर जी बोले : भाई सत्संग का महत्व मैं भी नहींे जानता । अच्छा ! हम ब्रह्मा जी के पास चलते हैं । वे ही सत्संग का महत्व बतायेंगे । शंकरजी, नारद और वह व्यक्ति तीनों चलकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे भी यही प्रश्न किया । सत्संग का क्या महत्व है ? यह बताइये । ब्रह्मा जी तो मुश्किल में पड गये । बोले - भाई, मुझे तो मालूम नहीं । इसका उत्तर तो विष्णुजी ही दे सकते हैं । अपन विष्णु के पास चलते हैं ।
ये सभी बैकुण्ठधाम पहूंचे तो वहॉं विष्णुजी विराजमान थे । विष्णुजी ने देखा कि आज तो बडे-बडे महापुरुष एक साथ आये हैं । कारण पूछा तो नारद ने कहा- भगवन ! यह व्यक्ति सत्संगक का महत्व जानना चाहता है और हममें से किसी को सत्संग का महत्व मालूम नहीं है इसलिए आपके पास आये हैं । कृपया, आप सत्संग का महत्व समझायें । विष्णु जी ने उसी व्यक्ति से पूछा - बोल भाई ! तूने अभी तक सत्संग का क्या महत्व सुना था ? उस व्यक्ति ने कहा- मैंने सुना था कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । मैंने घंटे भर का सत्संग किया, पर मुझे तो कोई बैकुण्ठ नहीं मिला । विष्णुजी ने उसी व्यक्ति से पूछा- बोल भाई ! तूने अभी तक सत्संग का क्या महत्व सुना था ? उस व्यक्ति ने कहा- मैंने सुना था कि सत्संग से बैकुण्ठ मिलता है । मैंने घंटे भर का सत्संग किया, पर मुझे तो कोई बैकण्ठ नहीं मिला । विष्णुजी ने उसके कान पकडकर कहा- अरे भोले प्राणी ! साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, महेश तेरे सामने खडे हैं - तो यह बैकुण्ठ नहीं तो क्या तेरा घर है ? अगर तू घंटे भर का सत्संग नही करता तो तू क्या यहॉं तक आ सकता था ? देख घंटे भर के सत्संग का फल कि तीन-तीन देव तेरे सामने खडे हैं । श्रद्धा बडी चीज है । श्रद्धा ही फल देती है ।
तो, सत्संग का जीवन में बडा गहरा महत्व है । संतों की अंगुली थामकर रखो । जैसे बन्दर का बालक अपनी मॉं से चिपका रहता है, वैसे ही तुम संतों से चिपके रहो, जुडे रहो । बस तुम्हारा इसी में कल्याण है । भीड भरे मेले में जब तक बच्चे की अंगुली मॉं के हाथ में होती है तब तक बालक का जीवन सुरक्षित होता है लेकिन ज्यों ही मॉं की अंगुली छूटती है तो बालक भीड के संकट में खो जाता है । जब तक तुम्हारी जीवन की अंगुली किसी संतने शाम ने थाम रखी है, तब तक संसार का कोई थपेडा तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड सकता और अगर अंगुली छूट गई तो फि रोना ही रोना शेष रह जायेगा ।
तो, उस युवक ने सोचा - गलत जगह आ गये । यह आदमी तो गडबड है ही, लगता है इसकी पत्नी भी बडी बुद्धू है । उसने यह भी नहीं पूछा कि धूप में बैठे हो तो लालटेन की क्या जरुरत पड गई ? ऊपर वाले ने भी क्या जोडी बिठाई है । दोन्हों ही एक से हैं । वह मन ही मन कबीर को कोस रहा था । युवक कबीर से कहता है, मेरी समस्या का समाधान करें । मुझे देर हो रही है, मुझे जल्दी जाना है, कबीर ने कहा- करुंगा, थोडी प्रतीक्षा करो । कबीर ने अपनी पत्नी को निर्देश दिया किवह दो कटोरे दूध लेकर आये । पत्नी रसोई में गई- दूध में चीनी डाली, और दो कटोरे दूध से भरकर कबीर के सामने
परमात्मा तो तुम्हारे द्वार पर ही खडा है लेकिन तुम इतने अहंकारी, अभिमानी हो कि उसके स्वागत में, उसकी अगवानी में चार कदम भी नहीं चल रहे हो । परमात्मा तु
परमात्मा तो तुम्हारे द्वार पर ही खडा है लेकिन तुम इतने अहंकारी, अभिमानी हो कि उसके स्वागत में, उसकी अगवानी में चार कदम भी नहीं चल रहे हो । परमात्मा तुमसे बहूत दूर नहीं है । वह तो तुम्हारे इर्द-गिर्द, तुम्हारे पास-पडौस में ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । अहंकार के महल से बाहर निकलकर जरा एक बार झांककर देखो तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा है । तुम्हें तो सिर्फ चार कदम ही चलना है । प्रभु बडा दयालु है । तुम चार कदम उसकी तरफ चलोगे, वह हजार कदम तुम्हारी तरफ चलेगा । तुम मंदिर क्यों जाते हो ? मंदिर जाने का अर्थ क्या है ? मंदिर जाने का इतना ही अर्थ है- प्रभु कहते है, तुम घर से निकलकर मंदिर तक आओ तो मैं सिद्धालय से उतरकर मंदिर तक आ जाऊंगा । यही तो चार और हजार कदम का गणित है । तुम्हारा घर मंदिर से कितनी ही दूर क्यों न हो, वह सिद्धालय के सामने चार कदम से ज्यादा दूर नहीं हो सकता । तो तुम चार कदम चलने की ईमानदारी, साहस तो दिखाओ, फिर यदि वह हजार कदम चलकर तुम्हारी तरफ न आये तो कहना । तुम घर से निकलकर मंदिर तक तो आओ फिर यदि वह सिद्धालय से उतरकर तुम तक न आए तो कहना ।
तुम ही परमात्मा तक नहीं पहुँचते हो, परमात्मा भी तुम तक पहूँचता है । तुम ही उसे नहीं पुकारते हो, वह भी तुम्हें पुकारता है । तुम ही उसके पीछे-पीछे नहीं भागते हो, वह भी तुम्हारे पीछे-पीछे भागता है । मनुष्य ही परमात्मा तक नहीं पहूँचता । जब भी मनुष्य तैयार होता है, खुद परमात्मा ही मनुष्य तक पहूँच आता है । जब भी मनुष्य तैयार होता है, खुद परमात्मा ही मनुष्य तक पहूँच आता है । तुम क्या जाओगे उस तक । तुममें हिम्मत ही कहॉं है इतनी ? वो ही तुम तक आता है ।
तुम्हें तो सिर्फ एक भक्ति समर्पण की माला तैयार करनी है और जिस दिन तुम्हारी यह जीवन समर्पण की माला तैयार हो जायेगी, प्रभु खुद ही तुम्हारे सामने गर्दन कर देंगे । तुम प्रभु की गर्दन में माला नहीं डालोगे अपितु प्रभू ही माला में गर्दन डाल देंगे । तुम तो बहूत बौने लोग हो, तुम तो बहुत छोटे-छोटे लोग हो, प्रभु तो बडे विराट है, महान है, ऊंचे हैं । एवरेस्ट की चोट पर भी खडे होकर यदि तुम उनकी गर्दन तक नहीं पहूँच सकते । तुम्हें तो केवल माला तैयार करनी है । माला तैयार होते ही उसमें मालिक की गर्दन आपों-आप आ जायेगी । लेकिन तुम बडे बेईमान हो, अभी तो तुम माला तैयार करने में लगे हुए हो ।
प्रभु के प्रभाव और संतों की संभावना को प्रणाम
तो प्रभु के चरणों में बैठकर प्रभु-भक्ति मॉंगो । प्रीु के चरणों में बैठने का सुख, उनके चरणों में भक्ती का आनंद अद्भूत है । प्रभू से मांगना है तो सत्संग मांगना, प्रभु-भक्ती मांगना । अभी तो तुम उससे धन-सम्पत्ति मांगते हो, संसार का वैभव मॉंगते हो, इधर-उधर का कूडा-करकट मांगते हो । अरे, वह तो भाग्य का विषय है जो मिलना है वह तो मिलना ही है । ना मांगो तब भी मिलना है । कितना मिलना है- यह तो जन्म से पूर्व ही जन्म की पुस्तिका में लिख दिया जाता है । जो मिलने ही वाला है, उसे क्या मांगना ? अगर तुम्हारा पैसा बैंक के खाते में जमा है तो तुम्हारा दुश्मन भी काउंटर पर बैठा हो तो उसे भी देना पडेगा, और यदि खाते में कुछ भी जमा नहीं है तथा तुम्हारा अपना ही लडका काउंटर पर बैठा हो, तो वह भी नहीं दे पायेगा ।
प्रभु के चरणों में बैठकर इतनी ही प्रार्थना करना कि हे प्रभु ! तू मुझे हमेशा अपने चरणों में रखना । भगवान से चरण मांगना, उनका आचरण मांगना, उन जैसा समाधि-मरण मांगना, उन जैसा परम जागरण मांगना, क्योंकि जीवन की सब समृद्धि भगवान के श्रीचरणों में ही बसती है । भगवान से कहना- प्रभु ! तूने जो हजारों- लाखों रुपये दिए हैं उसमें से कुछ लाख, कुछ हजार कम करना है तो कर लेना, जो सैकडों रिश्तेदार दिए हैं उनमे से कुछ कम करना है तो कर लेना, जो धन-वैभव, सुख-सुविधा दी है उसमें कुछ कटौती करनी है तो कर लेना, जो बडा भारी मकान व लम्बा-चौडा व्यापार दिया है थोडा बहुत कम करना है तो कर लेना लेकिन मेरे भगवन् ! मेरी श्रद्धा को, मेरी भक्ती को, मेरी पूजाको कभी कम मत करना । मेश्री श्रद्धा-भक्ति को हमेशा बढाते रहना । श्रद्धा बढेगी तो सुख भी बढेगा क्योंकि श्रद्धा सुख का द्वार है ।
लोभ का गड्ढा दुष्पूर है । लोभ के गड्ढे में पडा सम्पूर्ण विश्र्व क अणु के समान मालूम पडता है । इच्छाएं अनंत हैं । आकांक्षाओं को छूना आकाश को छूने से भी
महात्मा बुद्ध ने कहा- संसार में नाना दु:ख हैं । मनुष्य तृष्णा को त्यागे तो दु:ख से बचे । भगवान महावीर ने कहा- लोभ का गड्ढा दुष्पूर है । लोभ के गड्ढे में पडा सम्पूर्ण विश्र्व क अणु के समान मालूम पडता है । इच्छाएं अनंत हैं । आकांक्षाओं को छूना आकाश को छूने से भी दुष्कर है । जब तक हम कामनाओं व वासनाओं के जाल से मुक्त नहीं होंगे, अतृप्त ही बने रहेंगे ।
परिवार नियोजन अधिकारी एक सेठ के पास गये । अपना परिचय देते हुए पूछा - सेठ साहब, आपकी कितनी संतान हैं ? सेठ ने कहा- सात । अधिकारी ने कहा- अब तो आपको परिवार नियोजन करा लेना चाहिए । सेठ ने कहा कि नहीं, यह फिलहाल संभव नहीं है । अधिकारियों ने आश्र्चर्य करते हुऐ पूछा - क्यों ? सेठ बोला - क्योंकि ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की है कि तुम्हारा तेरहवां पुत्र मंत्री बनेगा ।
सेठ इस आशा-विश्र्वास पर जी रहा है कि उसका तेरहवा पुत्र मंत्री बनेगा, भले ही तेरहवां पुत्र होने से ही पूर्व ही उसकी तेरई मन जाए । मनुष्य बहिर्मुखी हो गया है । सुख का अनंत सागर स्वयं में हिलोरे मार रहा है परन्तु जैसे चम्मच कडाही में रहकर भी मिठाई का स्वाद नहीं जानता वैसे ही यह आत्मा अपने आत्मिक आनंद का अनुभव नहीं करता । बाह्य में खोजता है आनंद को, यही तो भूल है मानव की । सेठ तेरहवें पुत्र का सपना देख रहा है । कितना बडा लोभ पाल रहा है जीवन में । मनुष्य को चाहिए कि वह असीम इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए, जन-जन के कल्याण व प्राणी मात्र के अभ्युदय हेतु संकल्पित हो । स्वार्थवृत्ति को छोडकर औरों के लिए जीना व मरना सीखे । यही मानवता की कसौटी है । इस सम्बन्ध में मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां कितनी प्रेरणास्पद है -
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी ।
मरो, परन्तु योें मरो की याद जो करें सभी ।।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए ।
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए ।।
यही पशु प्रकृति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
चले अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विघ्न जो पडे उन्हें ढकेलते हुए ।।
घटे न हेल-मेल हां बढे न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के, सतर्क पान्थ हो सभी ।।
यही समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे ।
वही मनुष्य कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
हर मनुष्य अपने कर्तव्य व दायित्व को पहचाने और दूसरे के दु:ख दर्द में सहभागी बने, दीन दु:खी, पीडित, दलित व उपेक्षित व्यक्तियों की सेवा करने वाला देवमानव माना जाता है जबकि औरों को कष्टग्रस्त देखकर आनंद की अनुभूति करने वाला वनमानुष । जब पृथ्वी पर देवमानुष की संख्या बढती है तब स्वर्गोपम को धारण करती है और वनमानव से नरकोपम को । दीन-दुखियों की उपेक्षा करके कोई भी व्यक्ती धर्म की आत्मा को नहीं समझ सकता । दीनों की सेवा विश्र्व का सर्वोपरि धर्म है ।
चेतना-पुंज मानव का यह परम कर्तव्य है कि अपने सुख के साथ-साथ औरों के सुख में भी कारण बने और इसके लिए वह निहायत जरुरी है कि मनुष्य सिर्फ आकृति से ही नहीं, प्रत्युत प्रकृति से भी मनुष्य बने और मानवता का परिचय दे । ईश्र्वर का प्रिय पुत्र होने का गौरव जो उसे मिला है, उसे अपने दुष्कर्मों से लांछित न करे ।
ब्रह्मकुमारिज भगवान भाई आबू रोड
जब हम किसी की सेवा करते हैं, चरण-वंदना करते हैं, चरण दबाते हैं, तो इससे हमारा अहंकार टूटता है । ध्यान रखना- अहंकारी व्यक्ति ने तो किसी को प्रणाम करता है और न ही किसी व्यक्ति की सेवा । सेवा से अहंकार टूटता है । किसी को नमन करने का अर्थ है- अहंकार से मुक्ति पाना । तुम किसी के हाथ तभी जोड सकते हो, जब थोडा-सा अहंकार छोड दो । किसी को साष्टांग प्रणाम तभी कर सकते हो जब इससे भी ज्यादा अहंकार छोड दिया हो, और चरण धोकर गंधोदक, चरणामृत तभी ले सकते हो जब पूर्णतया अहंकार से मुक्त हो गये हो । धर्म की यात्रा अहंकार बहुत सख्त है । एक बार की चोट से नहीं टूटता है । इसे तोडने के लिए कई चोटों की जरुरत है । इसलिए णमोकार मंत्र में पांच चोटों के माध्यम से अहंकार को तोडने की प्रक्रिया अपनाई गई है । नारियल तो एक-दो चोट से ही टूट जाता है लेकिन अहंकार का नारियल बडा मजबूत है - इस पर कई चोट लगानी पडती है । । जहॉं अहंकार होगा, वहॉं णमोकार नहीं हो सकता और जहॉं णमोकार नहीं होगा और यदि वह अहंकारी है, तो णमझना अभी उसने णमोकार के महत्व और मूल्य को समझा नहीं है । अभी णमोकार मंत्र उसके हृदय तक पहूँचा नहीं है ।
अहंकार बाधा है । परमात्मा और तुम्हारे बीच एकमात्र अहंकार बाधा है । तुम्हारे और प्रभु के बीच अहंकार की दीवार है । अगर अहंकार की दीवार ढह जाये तो तुम्हारे लिए प्रभु के द्वार खुल जायेंगे । अहंकार दीवार है और समर्पण द्वार है । समर्पण के द्वार से ही ईश्र्वरीय दृष्टि मिलती है । अगर अपना सच्चा समर्पण प्रभु को कर दो तो प्रभु प्रकट होने के लिए बाध्य हो जाता है ।
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