Wednesday, June 1, 2011

कथनी और करनी की एकरुपता ही धर्म है । धर्म दुकान पर बेचने और खरीदने की वस्तु नहीं है । धर्म अपने को मिटा देने की प्रक्रिया हैं । महावीर ने कहा : होश ही



कथनी और करनी की एकरुपता ही धर्म है । धर्म दुकान पर बेचने और खरीदने की वस्तु नहीं है । धर्म अपने को मिटा देने की प्रक्रिया हैं । महावीर ने कहा : होश ही धर्म है । महावीर कहते हैं : होश में किया गया हर कर्म पूजा बन जाता है । होश में चलना प्रभु की परिक्रमा लगाने जैसा है । होश में सोना प्रभु को दण्डवत करने जैसा है । होश में बोलना प्रभु का कीर्तन करने जैसा है, होश में कुछ भी सुनना कथा श्रवण जैसा है । होश में खुली आँखों से कुछ भी देखना प्रभु दर्शन जैसा है । होश में जीने वाला कोई पाप नहीं करता है । दुनिया में जितने पाप हो रहे हैं वे सब बेहोशी में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं, मूर्च्छा में जीने वालों के द्वारा हो रहे हैं । होश में तुम किसी को गाली नहीं दे सकते, होश में तुम किसी की हत्या नहीं कर सकते । गाली और हत्या बेहोशी की देन है ।
महावीर की देशना एकदम सीधी-सादी है लेकिन आज हमने उसे जटिल बना दिया है । इतना जटिल की अब लोग उससे पीछे हटने लगे हैं । महावीर एक दम सरल हैं, उनके उपदेश और भी सरल हैं लेकिन उनके तथाकथित अनुयायी बडे कठिन हैं और उन कठिन अनुयायियों ने महावीर और उनके धर्म को भी कठिन और जटिल बना दिया है । जैन धर्म के पिछडेपन का यही एक कारण है । जिस धर्म में अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह जैसे शाश्वत स्वर हों और वही धर्म सिकुड जाये बात समझ में नहीं आती है । जैन धर्म के पिछडेपन का कारण यही है कि जैन धर्म के सिद्धान्त तो अच्छे हैं लेकिन उनकी पैकिंग अच्छी नहीं है, प्रस्तुति अच्छी नहीं है । जमाना विज्ञापन और पैकिंग का है । किसी दुकान का माल कितना ही अच्छा क्यों ना हो, यदि उसकी पैकिंग अच्छी ना हो तो पैकिंग आकर्षक न हो तो दुकान चलती नहीं है । जैन धर्म के पास यही वजह है कि जैनियों की अच्छी चीज भी धूल-धूसरित हो रही है । अटाले में पडी धूल खा रही है । समय की नजाकत को पहचानिए और समय के साथ चलने की आदत डालिए । और हॉं, हो सके तो खुद भी सरल बनिए । क्योंकि महावीर कहते हैं चित्त की सरलता ही धर्म है, चरित्र की सरलता ही जीवन है । सरलता कैसी होती है, इसे गांधीजी के एक उदाहरण से समझें ।
कहते हैं एक बार गांधी जी लोकल गाडी में चंपारण से बतिया गॉंव जा रहे थे । वहॉं उनकी एक सार्वजनिक सभा थी । जिसे उन्हें सम्बोधित करना था । गांधी जी तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार थे । जगह मिल गई तो थोडा-सा पैर फैलाकर के लेट गये । किसी स्टेशन पर गाडी रुकी तो एक ग्रामीण युवक भी उसी डिब्बे में चढ आया । गांधी जी तो अभी सो रहे थे और उस युवक को बैठने के लिए जगह चाहिए थी । गांधी जी को सोता देखकर उस युवक ने गांधी को धक्का लगाते हुए कहा ऐ बुढ्ढे ! तेरे बाप की गाडी है क्या ? जो लम्बे पैर पसारकर सो रहा है, चल उठ, सीधा होकर बैठ । महात्मा गांधी तुरन्त उठ गये और चुपचाप शांत भाव से बैठ गये । इसको कहते हैं "सरलता' गांधी उत्तेजित नहीं हुए, शांत रहे । कुछ बोले भी नहीं, चुप रहे । वह युवक भी गांधी जी के पास ही पैर पसार कर बैठ गया ।
थोडी देर बाद उसने भजन गाना शुरु किया । भजन के बोल थे - "धन-धन गांधी तेरा अवतार, दुखियों के दु:ख काटन हार ।' धन-धन गांधी तेरा अवतार । गांधी जी भी यह भजन सुन रहे थे । दरअसल वह युवक भी गांधी के दर्शन करने और उन्हें सुनने के लिए बतिया गॉंव जा रहा था । युवक का भजन पूरा हुआ । गांधी जी ने भी भजन का पूरा आनंद लिया । वह बोले कुछ नहीं । यह है सरलता । अब तक युवक का भजन पूरा हो चुका था, उधर गाडी भी अपनी रफ्तार से भाग रही थी । बतिया गॉंव के करीब गाडी पहुँची तो युवक ने गांधी जी से पूछा "ए बुड्ढे ! तूने महात्मा गांधी कानाम सुना है ? मैं उनका दर्शन और प्रवचन सुनने जा रहा हूँ, वो बहूत अच्छे इंसान हैं ।

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