Wednesday, June 1, 2011

लोभ का गड्ढा दुष्पूर है । लोभ के गड्ढे में पडा सम्पूर्ण विश्र्व क अणु के समान मालूम पडता है । इच्छाएं अनंत हैं । आकांक्षाओं को छूना आकाश को छूने से भी



महात्मा बुद्ध ने कहा- संसार में नाना दु:ख हैं । मनुष्य तृष्णा को त्यागे तो दु:ख से बचे । भगवान महावीर ने कहा- लोभ का गड्ढा दुष्पूर है । लोभ के गड्ढे में पडा सम्पूर्ण विश्र्व क अणु के समान मालूम पडता है । इच्छाएं अनंत हैं । आकांक्षाओं को छूना आकाश को छूने से भी दुष्कर है । जब तक हम कामनाओं व वासनाओं के जाल से मुक्त नहीं होंगे, अतृप्त ही बने रहेंगे ।
परिवार नियोजन अधिकारी एक सेठ के पास गये । अपना परिचय देते हुए पूछा - सेठ साहब, आपकी कितनी संतान हैं ? सेठ ने कहा- सात । अधिकारी ने कहा- अब तो आपको परिवार नियोजन करा लेना चाहिए । सेठ ने कहा कि नहीं, यह फिलहाल संभव नहीं है । अधिकारियों ने आश्र्चर्य करते हुऐ पूछा - क्यों ? सेठ बोला - क्योंकि ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की है कि तुम्हारा तेरहवां पुत्र मंत्री बनेगा ।
सेठ इस आशा-विश्र्वास पर जी रहा है कि उसका तेरहवा पुत्र मंत्री बनेगा, भले ही तेरहवां पुत्र होने से ही पूर्व ही उसकी तेरई मन जाए । मनुष्य बहिर्मुखी हो गया है । सुख का अनंत सागर स्वयं में हिलोरे मार रहा है परन्तु जैसे चम्मच कडाही में रहकर भी मिठाई का स्वाद नहीं जानता वैसे ही यह आत्मा अपने आत्मिक आनंद का अनुभव नहीं करता । बाह्य में खोजता है आनंद को, यही तो भूल है मानव की । सेठ तेरहवें पुत्र का सपना देख रहा है । कितना बडा लोभ पाल रहा है जीवन में । मनुष्य को चाहिए कि वह असीम इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए, जन-जन के कल्याण व प्राणी मात्र के अभ्युदय हेतु संकल्पित हो । स्वार्थवृत्ति को छोडकर औरों के लिए जीना व मरना सीखे । यही मानवता की कसौटी है । इस सम्बन्ध में मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां कितनी प्रेरणास्पद है -
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी ।
मरो, परन्तु योें मरो की याद जो करें सभी ।।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए ।
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए ।।
यही पशु प्रकृति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
चले अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विघ्न जो पडे उन्हें ढकेलते हुए ।।
घटे न हेल-मेल हां बढे न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के, सतर्क पान्थ हो सभी ।।
यही समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे ।
वही मनुष्य कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।
हर मनुष्य अपने कर्तव्य व दायित्व को पहचाने और दूसरे के दु:ख दर्द में सहभागी बने, दीन दु:खी, पीडित, दलित व उपेक्षित व्यक्तियों की सेवा करने वाला देवमानव माना जाता है जबकि औरों को कष्टग्रस्त देखकर आनंद की अनुभूति करने वाला वनमानुष । जब पृथ्वी पर देवमानुष की संख्या बढती है तब स्वर्गोपम को धारण करती है और वनमानव से नरकोपम को । दीन-दुखियों की उपेक्षा करके कोई भी व्यक्ती धर्म की आत्मा को नहीं समझ सकता । दीनों की सेवा विश्र्व का सर्वोपरि धर्म है ।
चेतना-पुंज मानव का यह परम कर्तव्य है कि अपने सुख के साथ-साथ औरों के सुख में भी कारण बने और इसके लिए वह निहायत जरुरी है कि मनुष्य सिर्फ आकृति से ही नहीं, प्रत्युत प्रकृति से भी मनुष्य बने और मानवता का परिचय दे । ईश्र्वर का प्रिय पुत्र होने का गौरव जो उसे मिला है, उसे अपने दुष्कर्मों से लांछित न करे ।

No comments:

Post a Comment