Friday, May 6, 2011

हनुमानजी जब लंका दहन कर लौट रहे थे, तब उन्हें कुछ अहंकार हो गया।

हनुमानजी जब लंका दहन कर लौट रहे थे, तब उन्हें कुछ अहंकार हो गया। श्रीराम ने इसे ताड़ लिया। रास्ते में हनुमानजी को प्यास लगी। उनकी दृष्टि शांत बैठे एक मुनि पर गई। उनके पास जाकर हनुमानजी ने कहा - मुनिश्री, मैं श्रीरामचंद्रजी का सीतान्वेषण कार्य करके लौट रहा हूं। मुझे बड़ी प्यास लगी है। थोड़ा जल दीजिए या किसी जलाशय का पता बताइए। मुनि ने उन्हें जलाशय का पता बता दिया। हनुमान सीता की दी हुई चूड़ामणि, अंगूठी और ब्रrाजी का दिया हुआ पत्र, मुनिश्री के आगे रखकर जल पीने चले गए। इतने में एक बंदर वहां आया और उसने इन सभी वस्तुओं को उठाकर मुनि के कमंडल में डाल दिया।

जब हनुमान जल पीकर लौटे और अपनी वस्तुओं के विषय में पूछा, तो उन्हें राम नाम अंकित हजारों अंगूठियां दिखाई पड़ीं। उन्होंने पूछा - ये सब अंगूठियां आपको कहां से मिलीं तथा इनमें मेरी अंगूठी कौन-सी है? मुनि ने उत्तर दिया - जब श्रीराम अवतार होता है और सीता हरण के पश्चात हनुमानजी पता लगाकर लौटते हैं, तब शोध मुद्रिका यहीं छोड़ जाते हैं। वे ही सब मुद्रिकाएं इसमें पड़ी हैं। तब हनुमानजी का अहंकार यह सोचकर नष्ट हो गया कि न जाने कितने राघव यहां आए और मुझ जैसे कितने लोगों ने उनके कार्य किए हैं। उन्होंने श्रीराम के पास जाकर क्षमा मांगी। तब श्रीराम बोले - मैंने ही मुनि का रूप धारण कर तुम्हारे अहंकार को दूर करने के लिए नाटक रचा था। अपने सत्कार्यो पर अहंकार करने से उनका पुण्य नष्ट हो जाता है।


तालाब में लहरे उठती हैं तो उसमें चेहरा नहीं दिखाई देता उसी प्रकार जब तक हमारे मन में राग, हेय, कषाये भरी रहेगी तब तक हमारे भीतर शांति नहीं आ सकती।

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