कटु वचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्मस्थलोंको घायल कर देते हैं, जिसके कारण घायल व्यक्ति दिन-रात दुखी रहता है। उनका परामर्श है कि ऐसे कटु वाग्बाणोंका त्याग करने में अपना और औरों का भला होता है। बाणों से हुआ घाव भर जाता है, कुल्हाडे से काटा गया वृक्ष फिर उग जाता है, लेकिन वाणी से कटु वचन कहकर किए गए घाव कभी नहीं भरते। इसलिए जो मनुष्य कठोर वचन बोलता है, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, दूसरों के बारे में नहीं। स्वार्थी नहीं, बल्कि परमार्थी बनने के लिए आपको कठोर वचनों को छोडना ही पडेगा।
जो लोग मन, बुद्धि अथवा ज्ञान की छलनी से छान कर वाणी का प्रयोग करते हैं, वे हित की बातों को समझते हैं अथवा शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। जो बुद्धि से शुद्ध कर के वचन बोलते हैं, वे अपने हित को भी समझते हैं और जिस को बात बता रहे हैं, उसके हित को भी समझते हैं। सोच-समझकर शब्दों का उच्चारण या बोलने में ही, कहने और सुनने वाले का हित-भाव छिपा हुआ है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य निहित रहते हैं।
मधुरता से कही गई बात हर प्रकार से कल्याणकारी होती है। परंतु वही बात कठोर व कटु शब्दों में बोली जाए, तो एक बडे अनर्थ का कारण बन जाती है। आज के समय में, जब कठोर वाणी के कारण रोड रेजजैसे अनेक अपराध बढ रहे हैं, ऐसे समय में वाणी का संयम बहुत ही जरूरी है। आज के आपाधापी के समय में यदि हम सदा मधुर, सार्थक और चमत्कारपूर्ण वचन नहीं बोल सकते, तो कम से कम वाणी में संयम का हमारा प्रयास अवश्य होना चाहिए।
उद्वेग उत्पन्न न करने वाला वाक्य बोलना, प्रिय, हितकारकऔर सत्य वचन बोलना और स्वाध्याय करना वाणी का तप कहलाता है।
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