Monday, December 20, 2010

परमात्मा

परमात्मा का पानी, परमात्मा की रोशनी, परमात्मा का खाना- इन्हीं सब चीजों से हम अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं। इनमें से अपना कुछ नहीं है। जब मनुष्य के मन में यह भावना जन्म लेती है कि मेरी शक्ति से नहीं, बल्कि उन्हीं की शक्ति से सब कुछ हो रहा है, तब उसमें अनंत शक्ति आ जाती है।

देखो, इस दुनिया में जो कुछ भी होता है उसके पीछे काम करती है कौन सी वृत्ति? एषणा वृत्ति। एषणा है इच्छा को कार्य रूप देने का प्रयास। जहां इच्छा है और इच्छा के अनुसार काम करने की चेष्टा है, उसको कहते हैं एषणा। दुनिया में जो कुछ भी है वह एषणा से ही बनी है। परमात्मा की एषणा से दुनिया की उत्पत्ति हुई है।

जब परमपुरुष की एषणा और मनुष्य की वैयक्तिक एषणा -दोनों एक साथ काम करती हैं तो वहां कर्म में मनुष्य सिद्धि पाते हैं। किंतु मनुष्य सोचता है कि मेरी कर्मसिद्धि हुई है। कर्मसिद्धि नहीं हुई, बल्कि परमपुरुष की एषणा की पूर्ति हुई। वे जैसा चाहते हैं वैसा हुआ। तुम्हारी ख्वाहिश भी वैसी थी, इसलिए तुम्हारे मन में भावना आई कि मेरी इच्छा की पूर्ति हो गई है।

परमपुरुष अपनी इच्छा के अनुसार काम करते हैं। किंतु मनुष्य के मन में आनंद होता है कब, जब वह देखता है कि उसकी इच्छा की पूर्ति हो गई। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य इसमें विचार करते हैं कि परमात्मा की इच्छा क्या है। उसी इच्छा को मैं अपनी इच्छा भी बना लूं। वे देखते हैं कि परमात्मा की जो एषणा है, उसके पीछे कौन सी वृत्ति है? वह है कि दुनिया का कल्याण हो।

इसलिए शास्त्र में परमात्मा का एक नाम है 'कल्याणसुंदरम।' परमात्मा सुंदर क्यों हैं? चूंकि, इनमें कल्याण वृत्ति है, इसलिए वे सुंदर हैं। परमात्मा हर जीव की नजर में सुंदर हैं क्योंकि वे 'कल्याणसुंदरम' हैं। प्रगति कैसी होगी? प्रगति उसी को कहेंगे जहां मनुष्य की गति है भौतिक-मानसिक तथा मानसिक-आध्यात्मिक। यह भौतिक-मानसिक गति क्या है? मैं आगे बढ़ूंगा और जितने जीव हैं, समाज के जितने मनुष्य हैं, सबों को साथ लेकर चलूंगा। यदि साधक गण सिर्फ अपने लिए आगे बढ़ेंगे और दुनिया के और व्यक्ति पीछे रह जाएंगे- तो वे सच्चे साधक नहीं हुए।

साधना का अन्यतम अंग है तप। तप माने अपने स्वार्थ की ओर नहीं ताकना, ताकना है समाज के हित की ओर। सामूहिक कल्याण की भावना जहां है, व्यक्तिगत कल्याण उसमें हो या न हो, उसी का नाम है तप। तप का सर्वोत्तम उपाय है क्या? जनसेवा। जनसेवा से आध्यात्मिक तरक्की तो अवश्य ही होती है। जो जनसेवा करते हैं वे सेवा करते वक्त सेव्य को नारायण समझ कर करते हैं, मनुष्य समझकर नहीं। इसलिए जनसेवा से आध्यात्मिक उन्नति तो अवश्य ही होती है, इसके अतिरिक्त होता है क्या? मन अत्यंत निर्मल हो जाता है। उस निर्मल मन से मनुष्य जो कुछ भी करेगा, उसी में उनकी जय-जयकार है।

बहुत सारे लोग साधना में बैठते हैं और मन इधर-उधर दौड़ता रहता है। किंतु जो जनसेवा करता है, जो तप ठीक से करता है, उस वक्त उसके मन में और कोई भावना आती है तो कौन सी भावना आती है? जनसेवा संबंधी भावना। तो जनसेवा संबंधी यह जो भावना है, उसमें जन को अर्थात मनुष्य को वे नारायण समझ लेते हैं। इसलिए कहा जाता है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए तथा मन को निर्मल बनाने के लिए जनसेवा एक अत्यावश्यक साधना का अंग है। इसलिए जनसेवा में किसी से पीछे नहीं रहो, जनसेवा में सबसे आगे बढ़ो। तुम लोगों का कल्याण हो

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