राजयोग का लक्ष्य, नियम तथा प्राप्ति
राजयोग ही अविनाश सुख-शान्ति का एकमात्र उपाय है
आज के इस आधुनिक युग में राजयोग सिखने की बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सुख-शान्ति की इच्छा रखता है और वह जानता है कि शान्ति केवल भौतिक चरमसीमा तक पहँुच चुकी है परन्तु विदेशी फिर भी भारत में ही योग सीखने आते है. वे जानते है कि योग ही एक मात्र साधन है जिससे मानसिक तनाव होता है तथा तन-मन को सुख-शान्ति और शक्ति की प्राप्ति होती है. लेकिन खेद की बात है कि भारत के आदि, प्राचीन राजयोग के नाम पर आज अनेक प्रकार के हटयोग या केवल शारीरिक आसन ही सिखाये जाते है. इनसे शारीरिक स्तर पर लाभ अवश्य होता है परन्तु मन की गहरी शाक्तियों को जगाने के लिए तो राजयोग से ही पूर्ण सफलता मिलती है. मन को शक्तियाशाली बनाने के लिए तो राजयोग की ही आवश्यकता है. क्योंकि प्रत्येक चीज़ मन से ही आरम्भ होती है. वौसे भी 80 प्रतिशत शारीरकि रोग मानसिक तनाव के कारण ही उत्पन्न होते है. यहाँ जो राजयोग सिखाया जाता है इनमें कोई भी शारीरिक आसन नहीं बताये जाते है लेकिन हरेक बात आध्यात्मिकता तथा मनोवौज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर व्यावहारिक रुप से समझाई जाती है. राजयोग एक ऐसा सहज व विश्व प्रिय योग है जिसका अभ्यास कोई भी व्यक्ति कर सकता है. चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, रंग, उम्र व्यवसाय, देश आदि का हो, क्यांेकि राजयोग इन सब बन्धनों से पार ले जाता है.
योग का अर्थ -
राजयोग को समझने के पूर्व ``योग`` शब्द का अर्थ जानना आवश्यक होगा. योग का शाब्दिक अर्थ है - जोड़, सम्बन्ध या मिलन. प्रत्येक व्यक्ति का किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, वौभव से योग होता ही है. पिता-पुत्र, पति-पत्नी का आपस मंे लौकिक सम्बन्ध भी एक योग ही होता है. जिस प्रकार अलग होने को ``वियोग`` शब्द दिया जाता है इसी प्रकार मिलन को ``योग`` शब्द दिया जाता है.
राजयोग का अर्थ -
योग का आध्यात्मिक अर्थ है आत्मा का सम्बन्ध, मिलन का जोड़ परमात्मा के साथ. आत्मा और परमात्मा का मिलन सर्वश्रेष्ठ होने के कारण इसे राजयोग कहते है. राजयोग सभी योगों का राजा है. स्वयं परमात्मा ही अपना परिचय देकर आत्मा को अपने साथ योग लगाने की विधि बताते है. इस योग को ``राजयोग`` इसलिए भी कहा गया है, क्यांकि इसका शिक्षक सर्वश्रेष्ठ योगेश्वर स्वयं परमात्मा ही है. इस योगद्वारा हमारे संस्कार उच्च अथवा ``रॉयल`` बनते हैं इसलिए भी इसे राजयोग कहा जाता है. राजयोग ही वर्तमान जीवन में कर्मो में श्रेष्ठता लाकर हमें कर्मेन्द्रियों का राजा बनाता है और भविष्य सतयुगी नई दुनिया में विश्व का महाराजा बनाता है.
राजयोग के विभिन्न नाम -
अ. ज्ञान-योग - राज शब्द में ``ज`` अक्षर के नीचे बिन्दी लगने से वह ``राज़`` बन जाता है. राज़ अर्थात रहस्य. यह राजयोग अनेक रहस्यों को खोलता है जौसे कि - ``मौ कौन हँू ? मौ कहाँ से आया हँू ? मुझे कहाँ जाना है ? मौ इस संसार में क्यों आया ? मुझे उनसे क्या प्राप्ति होनी है? आदि-आदि.......`` इसलिए इस राजयोग को ज्ञान-योग भी कहा जाता है. जब आत्मा और परमात्मा के सही स्वरुप, स्वभाव, धाम, गुणों और कर्तव्यों का ज्ञान हो तब ही राजयोग का अभ्यास किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में यह कह सकते है कि राजयोग द्वारा अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों के हल मिल जाते हैं.
ब. सहजयोग, बुध्दियोग - राजयोग को सहजयोग या बुध्दियोग भी कह सकते हैं क्योंकि यह योग हरेक व्यक्ति कर सकता है. यह योग कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार के शारीरिक आसन की आवश्यकता नहीं है. बल्कि राजयोग में बुध्दि के द्वारा मन को नियन्त्रित कर, ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर उसको परमात्मा में लगाया जाता है.
स. भक्ति-योग - राजयोग में केवल परमात्मा के प्रति सच्ची लगन, प्रेम या भक्ति की परम आवश्यकता है, इसलिए इस राजयोग को भक्ति योग भी कह सकते है. परमात्मा की प्रेम-पूर्ण याद ही यथार्थ भक्ति है.
द. कर्म-योग - राजयोग ही हमें सही कर्मयोग सिखाता है. कई समझते है कि योग सीखने के लिए उन्हें घर-गृहस्थी का त्याग करना होगा, जिम्मेदारियों को छोड़ना होगा, गेरुए वस्त्र धारण कर जंगल में जाना होगा तब वे योगी कहला सकते है. लेकिन ऐसी बात नहीं है. राजयोगी सच्चा कर्मयोगी भी है. कर्मयोगी अर्थात् कर्म-योगी, कर्म करते हुए पिता परमात्मा की याद में मन लगाकर योग करना ही वास्तविक कर्मयोग है. कर्मयोगी हर कर्म परमात्मा की याद में करता है. वह अपनी जिम्मेदारियों को सम्भालते हुए, घर-गृहस्थी में रहकर स्वयं के जीवन को कमल के फूल सदृश्य रखता है. जिस प्रकार कमल का फूल कीचड़ में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी न्यारा रहता है, इसी प्रकार राजयोगी प्रतिकूल वातावरण में रहते हुए भी अपने आपको उससे न्यारा रखकर हर कर्म को परमात्मा की याद करते हूए उसे श्रेष्ठ बनाता जाता है.
क. सन्यास योग - राजयोगी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अशुध्द अहंकार आदि जो आत्मा के महावौरी और बड़े दुश्यमन हैं, पर सहज रुप से विजय प्राप्त करता है या उनका संन्यास करता है. इसलिए राजयोग को संन्यास योग भी कह सकते है. भौतिक रीति से राजयोगी कुछ भी संन्यास नहीं करता है लेकिन मानसिक रीति से वह सारे भौतिक विश्व का संन्यास करता है और संन्यास भी उतना सहज बन जाता है.
राजयोग एक मनोविज्ञान
आज मनुष्य परमात्मा के सामने जाकर प्रार्थना करता है कि ``हे प्रभु ! मैं तुम्हारा दास हूँ, सेवक हूँ, गुलाम हूँ, चरणों की धूल हँू......`` आदि-आदि. लेकिन वास्तविकता यही है कि वह अपनी इन्दियों का गुलाम बन चुका है क्योंकि जहाँ इन्द्रियाँ मनुष्य के मन को ले जाती है, वही मन चला जाता है, इसीलिए मन को नीच, पापी कपटी और चंचल घोड़े आदि की उपाधि दी जाती है, लेकिन परमात्मा कहते है कि मन एक अति प्रबल शक्ति है जिसको ईश्वर की तरफ ले जाना ही राजयोग है.
वौसे तो हर एक व्यक्ति परमात्मा को याद करता है, परन्तू उसकी सहा यही शिकायत बनी रहती है कि जब भी वह ईश्वर के ध्यान में बौठता है, तब उसका मन टिकता नहीं है. अब इसका मूल कारण क्या है ? सबसे पहले ईश्वर का ध्यान करने वाला ``मौ स्वयं कौन हूँ `` - यही वह नहीं जानता है. वह यह भी नहीं जानता है कि ईश्वर का सही परिचय क्या है इसलिए मन की शक्ति काफ़ी हद तक अनेक व्यर्थ बातों में भटकने के कारण नष्ट हो जाती है. राजयोग वह मनोविज्ञान है जिसके द्वारा आत्मा और परमात्मा का सही परिचय प्राप्त कर मन को परमात्मा मंे लगाया जाता है, भगवान ने कहा है - ``मन्मनाभव`` अर्थात ``मन को मेरे में लगाओ`` मन को मारने की बजाए मन को ईश्वर की तरफ मोड़ना ही राजयोग है. जब मन परमात्मा में लगाया जाता है तब ही उसकी शक्ति व्यर्थ जाने के बजाए उसका संचय किया जा सकता है. राजयोग वह विधि है जिससे मन परमात्मा में लगाकर स्थायी रूप से उसके गुणों - सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम आदि का अनुभव किया जा सकता है.
परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ने के लिए किसी भी भौतिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है. स्वयं की पहचान तथा परमात्मा की पहचान के आधार पर यह सम्बधन्ध जोडना सहज हो सकता है.
राजयोग के लिए नियमों का पालन
संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार हैं. बिना नियम के मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से भी बदतर गिना जायेगा. ईश्वर में मन न लगने का यह भी एक कारण है. अगर मन में विकारों ने स्थान ले लिया है तो ईश्वर वहाँ स्थान कैसे ले सकता है ? परमात्मा की याद उसके मन में रह सकती है जिसका मन रूपी पात्र शुध्द हो. तो मन के शुध्दिकरण के लिए या राजयोग का श्रेष्ठ अनुभव करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक हो जाता है जो निम्नलिखित है -
अ. ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य अर्थात् मन, वचन, कर्म की शुध्दि. काम विकासर योगी का सबसे बड़ा शुत्र है. राजयोग अर्थात आत्म-स्मृति के आधार पर है जिसकी तुलना अमृत से की जाती है जबकि काम विकार देह-अभिमान के आधार पर है जिसकी तुलना विष से की जाती है. तो ```अमृत` और ``विष`` की भांति ``योग`` और ``भोग`` दो विरोधी बातें है जो साथ नहीं चल सकते है. अमृत के घड़े में एक बूंद भी जहर की पड़ जाने से अमृत जहर बन जाता है. एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है, दो नहीं. या तो जीवन राम हवाले है या काम हवाले है. जिस मन रूपी पात्र में काम विकार घूम रहा है, वहा परमात्मा स्थान कैसे ले सकता है ! शुध्द वस्तु को स्थान देने के लिए पात्र भी इतना योग्य और शुध्द होना चाहिए. उक्ति प्रसिध्द है - ``शेरणी का दूध सोने के पात्र में ही रह सकता है `` राजा और राजनौतिक नेता ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के आगे मस्तक झुकाते हैं छोटी कुमारियों की पूजा भी इसीलिए होती है क्योंकि वे पवित्र हैं देवता भी तन-मन से पवित्र हैं, इसलिए वे पूज्य हैं.
ब. शुध्द अन्न - मनुष्य जौसा भोजन करता है, उसका गहरा प्रभाव उसके मन की स्थिती पर पड़ता है. कहावत भी है - ```जौसा अन्न वौसा मन`` अत: राजयोगी के लिए भोजन की पवित्रता का नियम पालन आवश्यक है. उसका भोजन सात्विक अर्थात् शाकाहारी, सादा, ताजा और शुध्द होता है. उसमें तमोगुणी, मांसाहारी और रजोगुणी नशीले एवं उत्तेजक पदार्थ नहीं होते है. भोजन बनाने वाला भी ब्रह्मचर्य का पालन वाला हो. भोजन शुरु करने से पूर्व योग उस परमात्मा के प्रति अर्पित करता है और फिर प्रसाद के रुप में ग्रहण करता है जिससे उसकी मानसिक शुध्दि होती है. राजयोगी खाने के लिए नहीं जीता है, वह जीने के लिए खाता है वह तम्बाकू, शराब आदि नशीलंे पदार्थो के सेवन से भी दूर रहता है.
स. सत्संग - व्यक्ति की पहचान उसके संगी-साथियों से होती है. राजयोगी प्रतिदिन ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करता है. जौसे प्रात: स्नान करने के उपरान्त मनुष्य प्रफुल्लता का अनुभव करता है, वौसे ही आत्मा को बुरे संकल्पों से बचाये रखने एवं उमंग-उत्साह में रखने के लिए प्रतिदिन ज्ञानस्नान आवश्यक है. सत्संग का अर्थ है - सत्य का संग अर्थात् परमात्मा से मानसिक स्मृति द्वारा निरन्तर सम्पर्क बनाए रखना. पावन परमात्मा का संग करने से आत्मा पावन बन जाती है. राजयोगी अश्लील सिनेमा और उपन्यास की तरफ भी अपनी बुध्दि को नहीं ले जाता है.
द. दिव्य गुणों की धारणा - राजयोग का अन्तिम उद्देश्य देवत्व की प्राप्ति करना है. अत: राजयोगी अपने जीवन में सदगुणों की भी धारणा करता है. राजयोगी स्वयं को परमात्मा की सुयोग्य सन्तान समझकर अन्तर्मुखता, हर्षितमुखता, मधुरता, सहनशीलता, प्रसन्नता, सन्तुष्ठता, निर्भयता, धौर्य आदि गुणों की धारणा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
राजयोग द्वारा प्राप्ति
राजयोग से अनेक उपलब्ध्यिों की सहज प्राप्ति होती है जो और किसी योग से प्राप्त नहीं हो सकती है. यह सभी दु:खों की एकमात्र औषधी है जिससे कड़े संस्कार रुपी रोग नष्ट हो जाते है. राजयोग द्वारा मनुष्य अधिक क्रियाशील, कार्य-कुशल और जागरुक बन जाता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ जाती हैं. राजयोग मनुष्य में जीवन के प्रति मूलभूत परिवर्तन ला देता है. वह संसारी होते हुए भी विदेही होता है. वह कार्यरत होते हूए भी कर्मबन्धनों से मुक्त रहता है. वह गृहस्थ और समाज के कार्यो में सक्रिय भाग लेते हूए भी निर्लिप्त रहता है अर्थात परिस्थितीयों में तटस्थ रहकर कमल-फूल समान न्यारा और प्यारा जीवन व्यतीत करता है. इसी कारण वह समाज का भी एक लाभदायक अंग बन जाता है. संक्षेप में राजयोग उसको वह सब कुछ प्रदान करता है जो जीवन मेंे प्रापत करने योग्य है और वह अनुभव करता है कि वह सब कुछ पा रहा है. यही जीवन की पूर्णत है.
राजयोग अभ्यास
राजयोग के उपरान्त महत्व को देख हर मनुष्य में राजयोग अभ्यासी बनने के लिए रुची प्राप्त हो सकती है. अत: राजयोग की प्राथमिक अनूभूती हेतू निम्नलिखीत अभ्यास आवश्यक है.
कुल् समय के लिए परमात्म् याद - अखण्ड शान्ति की स्थिती में अपने - अपने ढ़ग से बौठेगे और प्रभू पिता के समक्ष राजयोग के अभ्यास निमित्त नियम पालन का श्रेष्ठ संकल्प रखेंगे ताकि वह मददगार बनकर हमें श्रेष्ठ प्राप्ति का अधिकारी बनाये
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