संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार हैं. बिना नियम के मनुष्य-जीवन पशु-जीवन से भी बदतर गिना जायेगा. ईश्वर में मन न लगने का यह भी एक कारण है. अगर मन में विकारों ने स्थान ले लिया है तो ईश्वर वहाँ स्थान कैसे ले सकता है ? परमात्मा की याद उसके मन में रह सकती है जिसका मन रूपी पात्र शुध्द हो. तो मन के शुध्दिकरण के लिए या राजयोग का श्रेष्ठ अनुभव करने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक हो जाता है जो निम्नलिखित है -
अ. ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य अर्थात् मन, वचन, कर्म की शुध्दि. काम विकासर योगी का सबसे बड़ा शुत्र है. राजयोग अर्थात आत्म-स्मृति के आधार पर है जिसकी तुलना अमृत से की जाती है जबकि काम विकार देह-अभिमान के आधार पर है जिसकी तुलना विष से की जाती है. तो ```अमृत` और ``विष`` की भांति ``योग`` और ``भोग`` दो विरोधी बातें है जो साथ नहीं चल सकते है. अमृत के घड़े में एक बूंद भी जहर की पड़ जाने से अमृत जहर बन जाता है. एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है, दो नहीं. या तो जीवन राम हवाले है या काम हवाले है. जिस मन रूपी पात्र में काम विकार घूम रहा है, वहा परमात्मा स्थान कैसे ले सकता है ! शुध्द वस्तु को स्थान देने के लिए पात्र भी इतना योग्य और शुध्द होना चाहिए. उक्ति प्रसिध्द है - ``शेरणी का दूध सोने के पात्र में ही रह सकता है `` राजा और राजनौतिक नेता ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के आगे मस्तक झुकाते हैं छोटी कुमारियों की पूजा भी इसीलिए होती है क्योंकि वे पवित्र हैं देवता भी तन-मन से पवित्र हैं, इसलिए वे पूज्य हैं.
ब. शुध्द अन्न - मनुष्य जौसा भोजन करता है, उसका गहरा प्रभाव उसके मन की स्थिती पर पड़ता है. कहावत भी है - ```जौसा अन्न वौसा मन`` अत: राजयोगी के लिए भोजन की पवित्रता का नियम पालन आवश्यक है. उसका भोजन सात्विक अर्थात् शाकाहारी, सादा, ताजा और शुध्द होता है. उसमें तमोगुणी, मांसाहारी और रजोगुणी नशीले एवं उत्तेजक पदार्थ नहीं होते है. भोजन बनाने वाला भी ब्रह्मचर्य का पालन वाला हो. भोजन शुरु करने से पूर्व योग उस परमात्मा के प्रति अर्पित करता है और फिर प्रसाद के रुप में ग्रहण करता है जिससे उसकी मानसिक शुध्दि होती है. राजयोगी खाने के लिए नहीं जीता है, वह जीने के लिए खाता है वह तम्बाकू, शराब आदि नशीलंे पदार्थो के सेवन से भी दूर रहता है.
स. सत्संग - व्यक्ति की पहचान उसके संगी-साथियों से होती है. राजयोगी प्रतिदिन ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करता है. जौसे प्रात: स्नान करने के उपरान्त मनुष्य प्रफुल्लता का अनुभव करता है, वौसे ही आत्मा को बुरे संकल्पों से बचाये रखने एवं उमंग-उत्साह में रखने के लिए प्रतिदिन ज्ञानस्नान आवश्यक है. सत्संग का अर्थ है - सत्य का संग अर्थात् परमात्मा से मानसिक स्मृति द्वारा निरन्तर सम्पर्क बनाए रखना. पावन परमात्मा का संग करने से आत्मा पावन बन जाती है. राजयोगी अश्लील सिनेमा और उपन्यास की तरफ भी अपनी बुध्दि को नहीं ले जाता है.
द. दिव्य गुणों की धारणा - राजयोग का अन्तिम उद्देश्य देवत्व की प्राप्ति करना है. अत: राजयोगी अपने जीवन में सदगुणों की भी धारणा करता है. राजयोगी स्वयं को परमात्मा की सुयोग्य सन्तान समझकर अन्तर्मुखता, हर्षितमुखता, मधुरता, सहनशीलता, प्रसन्नता, सन्तुष्ठता, निर्भयता, धौर्य आदि गुणों की धारणा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
राजयोग द्वारा प्राप्ति
राजयोग से अनेक उपलब्ध्यिों की सहज प्राप्ति होती है जो और किसी योग से प्राप्त नहीं हो सकती है. यह सभी दु:खों की एकमात्र औषधी है जिससे कड़े संस्कार रुपी रोग नष्ट हो जाते है. राजयोग द्वारा मनुष्य अधिक क्रियाशील, कार्य-कुशल और जागरुक बन जाता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ जाती हैं. राजयोग मनुष्य में जीवन के प्रति मूलभूत परिवर्तन ला देता है. वह संसारी होते हुए भी विदेही होता है. वह कार्यरत होते हूए भी कर्मबन्धनों से मुक्त रहता है. वह गृहस्थ और समाज के कार्यो में सक्रिय भाग लेते हूए भी निर्लिप्त रहता है अर्थात परिस्थितीयों में तटस्थ रहकर कमल-फूल समान न्यारा और प्यारा जीवन व्यतीत करता है. इसी कारण वह समाज का भी एक लाभदायक अंग बन जाता है. संक्षेप में राजयोग उसको वह सब कुछ प्रदान करता है जो जीवन मेंे प्रापत करने योग्य है और वह अनुभव करता है कि वह सब कुछ पा रहा है. यही जीवन की पूर्णत है.
राजयोग अभ्यास
राजयोग के उपरान्त महत्व को देख हर मनुष्य में राजयोग अभ्यासी बनने के लिए रुची प्राप्त हो सकती है. अत: राजयोग की प्राथमिक अनूभूती हेतू निम्नलिखीत अभ्यास आवश्यक है.
कुल् समय के लिए परमात्म् याद - अखण्ड शान्ति की स्थिती में अपने - अपने ढ़ग से बौठेगे और प्रभू पिता के समक्ष राजयोग के अभ्यास निमित्त नियम पालन का श्रेष्ठ संकल्प रखेंगे ताकि वह मददगार बनकर हमें श्रेष्ठ प्राप्ति का अधिकारी बनाये.
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