परमात्मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्व की सर्वशक्तिमान सत्ता है और ज्ञान के सागर है।”
इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय इन दिनों विश्व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्य आज शांति की तलाश में इस संस्था की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्व में व्याप्त धर्मों के सार को आत्मसात कर उन्हें मानव कल्याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक संस्था है। जिसकी विश्व के 72 देशों में 4,500 से अधिक शाखाएँ हैं। इन शाखाओं में 5 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं।
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इस संस्था की स्थापना दादा लेखराज ने की, जिन्हें आज हम प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।
दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्यापारी थे। वे बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्हें परमात्मा के सत्यस्वरूप को पहचानने की दिव्य अनुभूति हुई। उन्हें ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्हें ज्योति स्वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्कार हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्याण की ओर प्रवृत्त होने लगा।
उन्हें सांसारिक बंधनों से मुक्त होने और परमात्मा का मानवरूपी माध्यम बनने का निर्देश प्राप्त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्वरूप सन् 1936 में उन्होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में आध्यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने एक संस्था का रूप धारण किया।
इस संस्था की स्थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार कलकत्ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्मस्थान हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्होंने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्था में केवल महिलाएँ ही थी।
बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग आध्यात्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्चारित सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक संस्था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय’ नाम दिया गया।
इस विश्वविद्यालय की शिक्षाओं (उपाधियों) को वैश्विक स्वीकृति और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हुई है।
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