Wednesday, May 19, 2010

स्वयं का परिचय

राजयोग की साधना करे वाला ``मौ साधक कौन हँू ? `` - इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. ``आप कौन है ? `` - यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. ``आप कौन है ?`` प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा. ह उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है तो यह निश्चित है कि किसी भी व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व उस व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है. तो केवल व्यवसाय वर्णन करना पूर्ण परिचय नहीं हुआ. इसी प्रकार सभी शारीरिक परिचय विनाशी है. क्योंकि वे विनाशी देह के साथ सम्बधित हैं. परन्तु जब यह कहा जाता है कि, ``मौ परमात्मा के घर से आया हूँ और मुझे परमात्मा के घर जाना है`` तो यह कहने वाला ``मौ`` कौन हँू ? शरीर न परमात्मा के घर से आया है, न परमात्मा के घर जायेगा. शरीर का पिता होते हुए भी शरीर के अन्दर वह कौन-सी सत्ता है जो परमात्मा को अपना पिता कहती है ?

जब हम कहते है कि ``हमे शान्ति चाहिए``, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए. किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए. परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि - ``हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना `` मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो.

इससे स्पष्ट है कि ``मैं`` कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर मैं आत्मा साधक हँू, और शरीर मेरा एक साधन है. शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद ``मौ`` और ``मेरा`` - इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो ``आप कौन है ?`` का सही उत्तर यही है कि ``मौ आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है.`` ``मौ`` शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और ``मेरा`` शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है, इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी ``मेरा`` शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि ``मौ`` शब्द, जौसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए - मेरा शरीर.

आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध ड्राईवर और मोटर के समान है. जौसे मोटर में बौठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वौसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही ``मनुष्य`` शब्द कहने में आता है. आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि ``आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है`` आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप - विक्षेप में आती है तब ही ``महात्मा``, ``पुण्यात्मा``, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है. जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्रापत है. तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है.

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