Thursday, May 20, 2010

राजयोग आध्यात्मिक अनुशासन है राजयोगी ब्रह्मकुमार भगवान भाई प्रजापिता ब्रह्मकुमारी इश्वरीय विश्वविद्यालय माउंट आबू से पधारे भगवान भाई ने स्थानीय ब्

राजयोग आध्यात्मिक अनुशासन है राजयोगी ब्रह्मकुमार भगवान भाई



प्रजापिता ब्रह्मकुमारी इश्वरीय विश्वविद्यालय माउंट आबू से पधारे भगवान भाई ने स्थानीय ब्रह्मकुमारीज सेवाकेंद्र पर आयोजित क्रोधमुक्त जीवन विषय पर मुख्य वक्ता तौर बोल रहे थे। प्रजापिता ब्रह्मïकुमारी ईश्वरीय विवि द्वारा 7 दिवसीय योग शिविर जारी है। उन्होंने कहा कि राजयोग शिविर राजयोग स्वयं का परमात्मा से संबंध का नाम है। मन और बुद्धि का आध्यात्मिक अनुशासन राजयोग है। यह विचारों के आवेग व संवेग का मार्गान्तरीकरण कर उनके शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। राजयोग व्यक्ति के संस्कार शुुद्ध बनाने और चरित्रिक उत्थान द्वारा शारीरिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ का नाम है। इसके साथ ही यह जीवन की विपरीत एवं व्यस्त परिस्थितियों में संयम बनाए रखने की कला है। आध्यात्मिकता का अर्थ स्वयं को जानना है। प्र्रेम छोटा सा शब्द है, पर जीवन में इसका बड़ा महत्व है। साधन बढ़ रहे हैं, लेकिन जीवन का मूल्य कम होता जा रहा है। उन्होंंने कहा कि सभी को भगवान से प्रेम है। परमात्मा सूर्य के समान है। उनसे निकलने वाली प्रेम रूपी किरणें सभी पर समान रूप से पड़ती है। उन्होंने कहा कि शांति हमारे अंदर है, इसे जानने के साथ ही महसूस करने की भी जरूरत है। भगवान कभी किसी को दुख नहीं देता बल्कि रास्ता दिखता हैे। काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार के त्याग से ही भगवान के दर्शन होते हैं। राजयोग के अभ्यास से उनके जीवन में हुए सकारात्मक परिवर्तन को साझा किए।
उन्होंने कहा कि सहज राजयोग ही आत्मा-परमात्मा के मंगल मिलन का एक सरल उपाय है। इसी राजयोग ज्ञान एवं ध्यान के नियमित अभ्यास से मनुष्य अपने आंतरिक ज्ञान, आनंद एवं सुख शांति को उजागर कर सकता है। इससे वह संसारी जीवन में दुख, कष्ट व समस्याओं के समय अपने आत्मबल एवं आत्मविश्वास के आधार पर संतुलन कायम रख सकता है और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने कहा कि मानव जीवन की सार्थकता व सफलता के लिए सत्संग आवश्यक है। सत्संग को पाकर जीवन मंगलमय बन जाता है, जबकि कुसंगति से जीवन नरकमय हो जाता है। मनुष्य को सदासत्संग अच्छे संस्कारों से मिलता है। संस्कार भी वही सार्थक होते हैं, जो महापुरुषों के दर्शन कराएं। संतों की संगति से ही जन्म-मरण के कष्टों से मुक्ति मिलती है। परोपकारी भावना से कार्य करना चाहिए, इसका फल स्वयं भगवान देते हैं।

उन्होंने कहा कि क्रोध से तनाव और तनाव से अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। क्रोध के कारण ही मन की एकाग्रता खत्म होती है। इस कारण मन अशांत बन जाता है। उन्होंने क्रोध को अग्नि बताते हुए कहा कि इस अग्नि में स्वयं भी जलते हैं और दूसरों को भी जला क्रोध विवेक को नष्ट करता है। क्रोध का प्रारंभ मूर्खता से आरंभ होकर पश्चाताप में जाकर समाप्त होता है। क्या हो उपाय

उन्होंने क्रोध पर काबू पाने का उपाय बताते हुए कहा कि राजयोग के अभ्यास से क्रोध पर काबू पाया जा सकता है। इसके लिए निश्चय कर परमपिता परमात्मा को मन बुद्धि के द्वारा याद करना, उनके गुणगान करना ही राजयोग है।

सकारात्मक विचार तनाव मुक्ति के लिए संजीवनी बूटी है। सकारात्मक सोच का स्रोत आध्यात्मिकता है। कमलेश बहन ने कहा कि तनावमुक्त बन कर्म इंद्रियों पर संयम कर सकते हैं।

क्रोध स्वयं में विष और व्याधि है। क्रोध मानव जीवन की सर्वोपरि पराजय है। क्रोध में अंधकार की विडंबना, अग्नि की ज्वाला और मृत्यु की विभीषिका है। विश्व की आधे से अधिक समस्याएं क्रोध के कारण बनती है। क्रोध के अंधकार को हजार दीपक दूर नहीं कर पाते। क्रोध आने पर मनुष्य दस गुनी अधिक शक्ति की अनुभूति करता है। इसके उतर जाने पर दुर्बलता आ जाती है। क्रोध में वृद्धावस्था जैसी निर्बलता रहती है। क्रोध का दाग हृदय और मस्तिष्क की पूरी चमक फीकी कर देता है। पंद्रह मिनट के क्रोध से शरीर की उतनी शक्ति क्षीण होती है जितनी शक्ति नौ घंटे कड़े श्रम के बाद होती है। क्रोध विवेक, ज्ञान, बुद्धि को नष्ट करता है। क्रोध के समय आंखें बंद होने के साथ ही होंठ खुल जाते है। ध्वंसात्मक भावों में क्रोध स्वास्थ्य दृष्टि से सबसे घातक है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं ने गंभीर हृदयाघात के बहत्तर घंटे पूर्व सबसे प्रमुख मनोभाव की खोज में क्रोध को ही पाया। क्रोध की अनुभूति शारीरिक या मानसिक पीड़ा, असुविधा के कारण होती है। भूख, अभाव और अन्याय, भेदभाव से क्रोध पनपता है। क्रोध में गलत निर्णय से हानि होती है, सामाजिक प्रतिष्ठा घटती है। क्रोध उत्पन्न होने वाले विचारों, परिस्थितियों से बचना श्रेयस्कर रहता है। जिस मानसिक दशा में कोई रहता है उसी तरह के विचार आते है। विपरीत परिस्थितियां क्रोध का कारण बनती है। असफलता से भी क्रोध आता है। निर्दोष पर दोष मढ़ना भी एक कारण रहता है। स्वार्थपरता, महत्वाकांक्षा के अपूर्ण रहने पर क्रोध का परिवेश बनता है। क्रोध आने पर संयमपूर्वक मूल कारण का विचार करने पर आधा क्रोध कम हो जाता है। आत्मविश्लेषण करके कारणों की खोज करके निवारण के प्रयास से क्रोध कम होता है। ध्यान, मौन से मानसिक संतुलन सम्यक रहने पर क्रोध नहीं आता। त्याग करने वालों से स्वार्थी जब कृतघ्नता करते है तो क्रोध आता है। अयोग्यता जब योग्यता का मूल्यांकन करती है, निर्दोष को दोषी बताने पर क्रोध प्रतीक बन जाता है। असत्य भाषण पर क्रोध आता है। आंखें क्रोधाग्नि में जलकर दूसरों को भस्म करने की क्षमता रखती हैं। आंखें क्रोध का प्रभाव बताती है, क्रोध से बचने के लिए मौन से बड़ी दूसरी जिसमें विकार है वह कभी देवता नहीं हो सकता। जिसमें अभिमान है वह मनुष्य नहीं हो सकता। अभिमानी लोगों का कहीं सम्मान नहीं होता।


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