Wednesday, May 19, 2010

राजयोग के लिए परमात्मा का परिचय


राजयोग का सही अर्थ है आत्मा का परमपिता परमात्मा के साथ सम्बन्ध अथवा मिलन. इस मिलन द्वारा आत्मा को परमात्मा से सर्व प्रकार के गुणों और शक्तियों की प्राप्ति होती है. आत्मा के विषय में जानकारी प्रापत करने के बाद राजयोगी को यह जानना अति आवश्यक होगा कि परमात्मा कौन है ? जिसके साथ योगी आत्मा को योग लगाना है या सम्बन्ध जोड़ना है.

आज प्रत्येक व्यक्ति की यह शिकायत है कि ईश्वर का ध्यान करते समय उसका मन भटकता रहता है या एकाग्र नहीं हो पाता हैं. इस तरह की शिकायत मनुष्य के साथ योग लगाने की बात ें कभी नहीं होती है. कोई पत्नी यह शिकायत नहीं करेगी कि जव हव अपने पति को याद करती है तब उसका मन भटकता रहता है. कोई भी बच्चा यह कभी नही कहेगा कि वह अपने पिता में अपना मन एकाग्र नहीं कर सकता है. तब फिर यह शिकायत परमात्मा के लिए क्यों है ? एक तरफ परमात्मा को माता-पिता कहकर याद किया जाता है, उनके साथ सर्व सम्बन्धों का भी वर्णन किया जाता है -

त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुच्य सखा त्वमेव.
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव-देव

यह परमात्मा की ही तो महिमा में गाया जाता है. लेकिन दुसरी तरफ यह भी शिकायत बनी रहती है कि ईश्वर में मन नहीं लगता है, इसका मूल कारण यही है कि परमात्मा के साथ सम्बन्ध की पूरी अनुभूति नहीं. एक पत्नी को अपने पति का पूरा परिचय या बचचे को अपने पिता की पूरी पहचान है, लेकिन परमात्मा के विषय में मनुष्य बिल्कुल ही अनभिज्ञ हैं. आज परमात्मा के सम्बन्ध में अनेक मन्तव्य और विश्वास प्रचलित है जो प्राय: एक-दो के विरोधी ही है. इसी कारण मनुष्य समझ नहीं पाता है कि आखिर परमात्मा कौन है ? यही कारण है कि कई उसके अस्तित्व को ही स्वीकार करने के लिए तौयार नहीं है.

कोई परमात्मा को नाम रुप से न्यारा मानते हैं तो कोई इस अभिप्राय के हैं कि सभी ईश्वर के ही नाम-रुप हैं. कोई श्रीकृष्ण, श्रीराम, महात्मा बुध्द, ईसा मसीह को परमात्मा का अवतरण मानते हैं तो कोई यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते है कि परमात्मा का कभी अवतार भी होता है. कोई आत्मा को ही परमात्मा मानते है तो कोई आत्मा को परमात्मा का अंश मानते है, काई तो जगत को मिथ्या और ब्रह्म को सत्य मानते है तो कोई स्वयं को ईश्वर के नीच या दास सिध्द करते है, तो काई स्वयं को शिवोहम् या भगवान कहलाकर खु की पूजा करवाते है. कोई परमात्मा को हृदय में मानते है तो कोई कण-कण में व्यापक समझते है और कोई उसका स्थान सातवां आसमान बताते है. अब आखिर परमात्मा कौन है, कैसा है और कहाँ है ?

उपरोक्त अनेक मन्तव्यों का कारण है कि परमात्मा कोई स्थूल वस्तु नहीं है. जिसे चर्म-चक्षुओं से देखा जा सके या स्थूल इन्द्रियों से अनुभव किया जा सके. चौतन्य परमात्मा का वास्तविक स्वरुप तो बुध्दि के द्वारा ही जाना अथवा अनुभव किया जा सकता है. प्राचीन ऋषि-मुनि परमात्मा की हर प्रकार से खोज करने के पश्चात इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि ईश्वर को पहचानना मनुष्य के वश की बात नहीं है, ईश्वर के बारे में ने:ति-ने:ति कहकर छोड़ दिया.

परमात्मा की सत्य पहचान
अब यह तो सार्वभौमिक रुप से अवश्य स्वीकार किया जाता है कि परमात्मा एक है और वह सत्य है. इससे स्पष्ट है कि परमात्मा का परिचय भी केवल एक ही हो सकता है.

ईश्वर की सत्य पहचान क्या होगी ? जिस प्रकार किसी डॉक्टर की पहचान उसके ज्ञान, अनुभव, गुणों तथा कर्तव्यों के आधार पर ही की जा सकती है, उसी प्रकार परमात्मा का सही स्वरुप पाँच बातों के आधार पर पहचाना जा सकता हैं -

अ. परमात्मा उसे कहा जायेगा जो सर्वमान्य हो, यानी जिसे सभी धर्मो की आत्माये स्वीकार करें क्यांेकि वह सर्व धर्मो की आत्माओं के परमपिता है. उसे अलग-अलग भाषाओं और धर्मो में अलग-अलग नामों से याद किया जाता है, जौसे कि परमेश्वर, ईश्वर, ओंकार, अल्हाह, खुला, गॉड, नूर इत्यादि परन्तु वह एक ही है.

ब. परमात्मा उसे कहेंगे जो सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम या परम हो यानी उसके उपर कोई हस्ती नहीं हो. परमात्मा का कोई माता-पिता, शिक्षक, गुरु या रक्षक नहीं है, बल्कि वे ही सर्व आत्माओं के परमपिता, परमशिक्षक, परम सत् गुरु और परम रक्षक हैं. इसलिए उसकी महिमा में ही गाया गया है - `ऊंचा तेरा नाम, ऊंचा तेरा धाम, ऊंचा तेरा काम, ऊंचे से ऊंचा भगवान` तो जिसका नाम, धाम, गुण, कर्तव्य सबसे ऊंचा है वही परमात्मा है.

स. परमात्मा उसे कहेंगे जो सबसे न्यारा हो. परमात्मा जन्म-मरण कर्म-फल, पाप-पुण्य, दु:ख-सुख सबसे न्यारा है. परमात्मा इस प्रकृति की परिवर्तन-क्रिया अर्थात् सतो, रजो, तमो से भी न्यारा है. वह सर्व प्राकृतिक बन्धनों से मुक्त है. इसलिए वह सर्व से न्यारा और सर्व का प्यारा माना गया है. ईश्वर से ऊंचा तो काई नहीं है परन्तु उसके समान भी कोई नही हैं.

द. परमात्मा उसे कहेंगे जो सर्वज्ञ हो अर्थात् वह सबकुछ जानता हो. किसी भी संदर्भ में जब कोई बात व्यक्ति की समझ में नहीं आती है तो ईश्वर को याद कर अवश्य कहेगा `भगवान जाने या अल्लाह जाने` परमात्मा से काई भी बात अनभिज्ञ नहीं है क्यांेकि वह सर्वज्ञ है.

क. परमात्मा उसे कहेंगे जो सर्व गुणों और शक्तियों का भण्डार अथवा दाता हो. परमात्मा कभी भी किसी से लेता नहीं है परन्तु सागर या सूर्य के समान अपने गुणों और शक्तियों को देता ही रहता है. उसी के लिए गाया गया है - `देने वाला जब भी देता है, छप्पर फाड़ कर देता है`

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