Thursday, May 20, 2010

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय आबू पर्वत के राजयोगी बी.के. भगवान भाई ने कहा कि गुणवान व्यक्ति देश की सम्पति हैं

1. साहसी मनुष्य को अपने पराक्रम का पुरस्कार अवश्य मिलता है। सिंह की
गुफा में जाने वाले को संभव है काले रंग का मोती गजमुक्ता मिल जाये परंतु
जो मनुष्य गीदड़ की मांद में जायेगा तो उसे गाय की पुँछ और गधे के चमडे
के अलावा और क्या मिल सकता है।
2. धन का लोभ करने वाला ज्ञानी असंतुष्ट रहते हुए अपने धर्म का पालन नहीं
कर पाता, इसलिए उसका गौरव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। उसी तरह राजा भी
सन्तुष्ट होते ही नष्ट हो जाता है क्योंकि वह अपने राज्य के प्रति
सन्तुष्ट होने के कारण महत्त्वान्काक्षा से रहित सुस्त हो जाता और शत्रु
उसे घेर लेता है।

3. उनका जीवन व्यर्थ है जिन्होंने कभी अपने हाथों से दान नहीं किया, कभी
अपने कानों से नहीं सुना, अपने आँखों से सज्जन पुरुषों के दर्शन नहीं
किजिस व्यक्ति पर परमपिता भगवान् की कृपा दृष्टि हो जाती है उसके लिए
तीनों लोक अपने ही घर के समान है। जिस पर प्रभु का स्नेह रहता है उसके
सभी कार्य स्वयं सिद्ध हो जाते हैं।ये, जिकिसी भी कार्य को करने से पहले
देख लेना चाहिए उसका प्रतिफल क्या मिलेगा? यदि प्राप्त लाभ से बहुत अधिक
परिश्रम करना पडे तो ऐसा परिश्रम न करना ही अच्छा है। माला गूंथने से,
चंदन घिसने से या ईश्वर की स्तुति का स्वयं गान करने से ही किसी भी
मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता है, यह कार्य तो हर कोई कर सकता है। वैसे
जिनका यह व्यवसाय है उन्हें ही शोभा देता है। मनुष्य को वही कार्य करना
चाहिए जो उसके लिए उचित व कम परिश्रम से फलदायक हो।न्होंने कभी
तीर्थयात्रा नहीं की जो अन्याय से प्राप्त किये धन सेसंत शिरोमणि कबीरदास
जी कहते हैं की ज्ञान रूपी हाथी पर सहज भाव से दुलीचा डालकर उस पर सवारी
कीजिए और संसार के दुष्ट पुरुषों को कुत्ते की तरह भोंकने दीजिये, उनकी
पवाह मत करिये.

मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के
माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार
तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता
है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई
गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार
जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो
अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर
उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर
लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि
वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति
ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन जो बात बीत गयी उसका
सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल
वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही
दुःख झेलने पड़ते हैं।नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी
के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के
लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण
करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके
बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे
दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार
नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई
योगी ही निकाल पाता है।

वक्त के साथ अपनी सोच में बदलाव लाना भी जरुरी होता है। आज के दौर में हर
क़दम पर पहाड़ जैसी मुश्किल हमारा सामना कर रही है। अगर उनसे नई सोच और
सूझ बूझ के साथ काम न लिया जाए तो वो हमारे ऊपर हावी हो जाएंगी। इसलिए
जरुरी है कि वर्तमान के साथ साथ भविष्य को भी प्रडिक्ट करते रहें। ताकि
आने वाली मुश्किलों का आसानी से सामना किया जा सके।

अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता
बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं
अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें
कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते
हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर
ही अपना काम करें।जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी
बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का
पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।

१. यदि आप सफलता हासिल करना चाहते हैं तो गोपनीयता रखना सीख लें. जब किसी
कार्य की सिद्धि के लिए कोई योजना बना रहे हैं तो उसके कार्यान्वयन और
सफल होने तक उसे गुप्त रखने का मन्त्र आना चाहिए. अन्य लोगों की जानकारी
में अगर आपकी योजना आ गयी तो वह उसमें सफलता संदिग्ध हो जायेगी.

२.प्रत्येक व्यक्ति को स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए. उसे प्रतिदिन धर्म
शास्त्रों का कम से कम एक श्लोक अवश्य पढ़ना चाहिए. इससे व्यक्ति को
ज्ञान प्राप्त होता है और उसका भला होता है.

३.विवेकवान मनुष्य को जन्मदाता, दीक्षा देकर ज्ञान देने वाले गुरु,
रोजगार देने वाले स्वामी एवं विपत्ति में सहायता करने वाले संरक्षक को
सदा आदर देना चाहिए.

४.मनुष्य को चाहिए की कोई कार्य छोटा हो या बड़ा उसे मन लगाकर करे. आधे
दिल व उत्साह से किये गए कार्य में कभी सफलता नहीं मिलती. पूरी शक्ति
लगाकर अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य करने का भाव शेर से सीखना चाहिए.

५.अपनी सारी इन्द्रियों को नियंत्रण में कर स्थान, समय और अपनी शक्ति का
अनुमान लगाकर कार्य सिद्धि के लिए जुटना बगुले से सीखना चाहिए

1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी
वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों
द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते
हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी
समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।

2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है,
गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण
करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी
कार्य को करते हैं।
3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित
होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही
किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

4.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से
मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन,
औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह
हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों
के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

5.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी
चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति
रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं।
6.प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले
लोग ही सुखी होते हैं.
7.जो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर
रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता
है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय
में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.

हम परमात्मा को गाली देते हैं!!!
परमात्मा यानी सर्व आत्माओं में परम | जिनको हम कहते है की ये हर जगह और
हर जीव में विद्यमान है ! सूअर कुत्ते बिल्ली गाय गधे में सब जगह मौजूद
है ! एक दुष्ट आदमी में और एक क्रूर आदमी में भी परमात्मा मौजूद है !
दरअसल ये कहना परमात्मा को सबसे बड़ी गाली देना है ! परमात्मा सर्वव्यापी
नहीं है ! अगर एक क्रूर आदमी के अन्दर परमात्मा है तो वो क्यों क्रूर
होता है ?क्या परमात्मा के गुणों में क्रूरता का भी एक गुण है? एक
व्यक्ति जो किसी को बेवजह मौत के घाट उतारता है या जघन्य अपराध करता है,
तो उसके अन्दर विद्यमान परमात्मा कहाँ सोता है ? परमात्मा के गुण कहाँ
रहते हैं! जैसे अगर एक इत्र की शीशी खुली छोड़ दी जाए तो उसकी खुशबु से
पता चलेगा की इत्र की खुशबु है ! ठीक वैसे ही परमत्मा के गुण हैं शांति,
दया, प्रेम, करुना, ज्ञान,अगर क्रूर व्यक्ति में परमात्मा का वास है तो
वो गुण क्यों नहीं ! परमात्मा अगर सबमे विद्यमान है तो अवतरित होने की
क्या आवश्यकता है जबकि सबमे पहले से मोजूद हैं? अवतार लेना अर्थात दूसरी
जगह से आना, दूसरी जगह से आना अर्थात यहाँ ना होना !
हम परमात्मा की संतान हैं उस नाते उनके गुण हमारे अन्दर हो सकते हैं पर
परमात्मा नहीं !शाश्त्रों में हैं "आत्मा सो परमात्मा" जिसका हमने गलत
अर्थ लगाया की आत्मा ही परमात्मा है| यहाँ पर आत्मा और परमात्मा के रूप
की बात कही गयी है "आत्मा सो परमात्मा" का तात्पर्य है जैसा रूप और आकर
आत्मा का है वैसा ही रूप और आकार परमात्मा का है ! अत: परमात्मा को सर्व
व्यापी कहना अर्थात गाली देना है!
परमात्मा कौन है और कैसा है??
परमात्मा कौन है और कैसा है?? ये सवाल अक्सर हमारे मन में आता है, इसके
अलग अलग मान्यताएं है !
पर ब्रह्मा कुमारीज के अनुसार परमात्मा आत्मा की ही तरह है जैसा की आत्मा
के बारे में पिछली पोस्ट में
बताया था की आत्मा एक ज्योतिस्वरूप अंडाकार और अति सूक्षम जो स्थूल आँखों
से देखि नहीं जा सकती, है|
ठीक परमात्मा का भी वैसा ही आकार वैसा ही रूप और उतने ही सूक्ष्म है|
क्यूंकि परमात्मा हम सभी आत्माओं के पिता है|जैसे लौकिक में आदमी और उसकी
संतान आदमी ही होती है,
गाय की बाछी गाय ही ही होती है,ठीक उसी प्रकार आत्मा के पिता परमात्मा भी
आत्मा जैसे ही होते हैं|
फर्क है तो ये की उनकी सक्तियाँ असीमित है आत्मा ज्ञान स्वरुप है तो
परमात्मा ज्ञान के सागर है,
आत्मा शांति स्वरुप है तो परमात्मा शांति के सागर हैं|
आत्मा प्रेम स्वरुप है तो परमात्मा प्रेम के सागर है |
कहने का तात्पर्य ये की परमात्मा सभी दिव्य गुणों के सागर हैं, और सृष्टि
के रचियता है|
मौत के बाद के क्या!!!!
मनुष्य में सोचने जैसी अद्भुत क्षमता है| यही कारण है की आज मनुष्य चराचर
जगत में सर्वोच्च है | यदा कदा ये सोच भी आती ही है की मौत के बाद क्या
होता है|
अगर हम आत्मा हैं तो शरीर त्याग करने के बाद हम आत्माएं कहा जाती हैं ?
भिन्न भिन्न मतमतांतर हैं |कोई कहता है ब्रह्म में लीन हो जाती है | कोई
कहता है पशु पक्षी या अपने कर्मो के आधार पर दुसरा शरीर प्राप्त करता है,
किसी भी योनी में |

आत्मा की गुह्य गतियों को समझने के लिए पहले आत्मा के शरीर की जानकारी आवश्यक है |
आत्मा के तिन शरीर बताये गए हैं :१) स्थूल शरीर २) कारण शरीर ३) सूक्ष्म शरीर |
१.स्थूल शरीर जिसमे हम जन्म लेते हैं जिसमे हम अच्छे बुरे कार्य करते हैं |
२.कारण शरीर जो स्थूल शरीर के कारण उत्पन होता है ,परछाई के रूप में (
पानी, दर्पण , छाया इत्यादि)
३. सूक्ष्म शरीर जिसमे आत्मा विद्यमान रहती है ! जो अगर स्थूल शरीर से
निकल जाये तो इन भोतिक आँखों से देखा नहीं जाता |

अब चर्चा करेंगे मौत के बाद क्या होता है ?

एक आदमी जिसका एक्सीडेंट किसी गाड़ी से हो रहा है .....घबराया हुआ वो
आदमी भागने की कोशिश करता है......पर गाड़ी के चक्कों ने उसे कुचल
दिया....फिर भी वो भागता है .... और दूर चला जाता है .. उसकी समझ से परे
की आखिर वो कैसे बच गया .... दूर जाकर देखता है की किसी का एक्सीडेंट हो
गया और भीड़ जमा है.... वो भी देखने के लिए उत्सुकता वश जाता है तो भीड़
के अंदर हवा की तरह घुसता है... उसे अजीब लगता है पर समझ से परे की बात
होती है.......घटना स्थल पर अपना ही शरीर देखने पर उसकी हैरत का अंदाजा
नहीं रहता ..... वो जोर से चिल्लाता है की मैं यहाँ हूँ ......मैं ज़िंदा
हूँ.....पर स्थूल कोई भी अंग नहीं है ...आवाज़ निकले कहाँ से ....सूक्ष्म
शरीर में विद्यमान आत्मा ही सूक्ष्म शरीर को देख पाती है | उस वक़्त उस
आत्मा को पता चलता है की वो कभी मरती नहीं | मौत के बाद आत्मा सूक्ष्म
शरीर में रहती है कुछ भी नहीं बदलता सिर्फ वो गायब रहती है पर ओर्गन्स
सूक्ष्म होने की वजह से किसी को भी कुछ भान कराने में असमर्थ होती है |
अपने प्रियजनों के आस पास भटकती रहती हैं | तब तक भटकती है जब तक उसका
निर्धारित गर्भ में समय नहीं आता |
मरने के बाद आत्मा की कोनसी शांति के लिए प्रार्थना करते हैं!!!
पीछे हमने जाना आत्मा और शरीर में आत्मा का निवास स्थान| आइये अब चर्चा
करते है की आत्मा के गुण धर्म और स्वरुप क्या है|
आत्मा शांति स्वरुप है| प्रेम स्वरुप है| ज्ञान स्वरुप है| दया स्वरुप
है| जो भी हमें अच्छे गुण लगते हैं वही आत्मा के गुण है, और यही कारण है
की वो हमें अच्छे लगते है|
निर्दयी आदमी जो की हमेशां दूसरो कष्ट देने वाला होता है, अगर हम उसे बुरा
कहें तो क्या वो खुश होगा?? नहीं? तो क्यों? क्यूंकि वो भी उन दुर्गुणों
को नहीं चाहता, और वो आत्मा ये कतई सहन नहीं कर सकती की उसको दुसरे के
गुणों से पुकारा जाए|
अगर किसी दुष्ट मनुष्य को आप कहोगे की आप कितने अच्छे आदमी है! कितने
शांत हैं ! कितने उदार दिल हैं! तो वो खुश होगा ! क्यों?
क्योंकि ये आत्मा के गुण हैं आत्मा अपने गुण को सुनना चाहती है! जो की
लुप्त प्राय: हैं |आत्मा का सबसे बड़ा गुण है शांत स्वरुप| यही कारण है
की हम शांति शांति चिल्लाते रहते है |कोनसी शांति चाहिए आखिर एकांत में
जाकर बैठने से क्या शांति नहीं होती ? और अगर विश्व व्यापी शांति हो जाये
तो आत्मा की शांति होगी ?
नहीं ये वो शांति नहीं जिसकी आत्मा को तलाश है|


आत्माको चाहिए वो शांति जिससे मन में हो रही भयंकर उथल पुथल शांत हो और
परमात्मप्यार का संचार हो| अगर विश्व की शांति की बात होती तो मरने के
बाद दिवंगतआत्मा की शांति के लिए ३ मिनट का मौन धारण करके प्रार्थना नहीं
करते ! यहीवो शांति है जो आत्मा का गुण है|हमकहते हैं "ॐ शांति" अर्थात
मैं आत्मा शांत स्वरुप हूँ| पर अब शांति लुप्तप्राय: है | कहाँ से आये
शांति कोन दे शांति! सब अशांत हैं
अब आगे > पिछली पोस्ट में आत्मा पर थोडा सा प्रकाश डाला गया अब जरुरत है
आत्मा को विस्तार से समझने की| आत्मा के तीन गुण होते हैं मन, बुद्धि, और
संस्कार|मन: जो हमेशां चलता रहता है ये कार्य करूँ या न करूँ ?
बुद्धि :जो judgement करती है की इस कार्य को कर लें या न करें, ये
स्पष्ट रूप से निर्णय देती है| संस्कार : जो कार्य हमने किया उसका हमें
क्या फल मिलेगा, अच्छा या बुरा जो भी मिलना है उसी वक़्त आत्मा में
रिकोर्ड हो गया |
इनतीनो गुणों के साथ "मैं आत्मा" इस शरीर के मष्तिष्क में निवास करती हूँ
जैसे एक गाडी चालक ड्राइविंग सीट पर बैठ के पूरी गाडी को कंट्रोल करता है,
न की पूरी गाडी में वो मौजूद होता है ठीक उसी भांति आत्मा मष्तिष्क में
बैठकर पुरे शरीर की क्रिया करती है, जैसे एक घर में रहने वाला व्यक्ति घर
की खिड़की खोलता है दरवाजा खोलता है, साफ़ सफाई का सारा कार्य करता है|
आत्मा भी उसी प्रकार अपनी समस्त इन्द्रियों का संचालन करती है| कुछ पूर्व
निशानिया जो इंगित करती हैं की मैं एक आत्मा हूँ!
हम टिका माथे के मध्य भाग में लगाते हैं क्यों ?
स्त्रीअपने सुहाग की टिक्की भी माथे में लगाती है लेकिन सुहाग उजड़ जाने के बाद
टिकी नहीं लगाती है क्यों? उतर: हम टिका माथे के मध्य भाग में लगाते हैं
क्योंकि वो आत्मा का निवास स्थान है, और जिस घर में कोई रहता हो उसे
सुनसान नहीं छोडा जता, कुछ न कुछ डेकोरेशन होना ही चाहिए |
स्त्रीअपने सुहाग की निशानी माथे पे लगाती है क्योंकि वो बताती है ये स्वामी का
स्थान है अर्थात इस शरीर की स्वामी भी आत्मा है, सुहाग उजड़ने के पश्चात
बिंदी हटाती है की मेरा स्वामी चला गया| तो ये स्थान स्वामी के रहने का
होता है| कईबार देखते हैं कई लोग ऐसे मर जाते है की कुछ पता नहीं चलता की
ये क्यूँमरा वो बोलता नहीं, शांस नहीं लेता क्यूँ?? जितने भी अंग थे वहीँ
पर हैं
पर वो क्यूँ नहीं बोल रहा ??
मतलब?? "मर" क्या है जो चला गया? यानी कुछ ऐसी शक्ति
जो चली गई, जो बोलती थी, जो सुनती थी, जो देखती थी, वही आत्मा अथवा "मर"इस
शरीर को छोड़ कर चली गई!!!!!! ॐ शांति!!!! हूँ !!

मैंकौन हूँ !! सभी इस विषय पर चर्चा कर चुके हैं | वेद पुराण गीता कुरान
बाइबल सभी में आत्मा की पुष्टि होती है | पर आत्मा क्या है कैसे शरीर में
रहती है ? आदि आदि प्रश्नों का उत्तर ब्रह्माकुमारी में द्बारा जिस विधि
से दिया गया वो बताना चाहता हूँ ! प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय
विश्वविद्यालय का मूल मंत्र है की "मैं एक आत्मा हूँ" | अब ज़रा प्रकाश
डाला जाये | कहने का तात्पर्य है की हम जो आँखों से देखते हैं, मुह से
बोलते हैं, कानो से सुनते है, और समस्त इन्द्रियों द्बारा जो भी भान होता
है, वो आत्मा को होता है | मैं आत्मा मस्तिष्क में वास करती हूँ | और
मस्तिष्क ही एक ऐसी जगह है जहां शरीर के सारे कण्ट्रोल मौजूद हैं | वहीँ
से सञ्चालन करती हूँ अपने शरीर को | अब आत्मा का स्वरुप क्या है ? B.K के
अनुसार आत्मा ज्योति स्वरुप है, जो सुक्ष्माती सूक्ष्म है, एक केश के शिरे
का हजारवा हिस्सा, जो अंडाकार है| आत्मा अजर अमर अविनाशी है | अर्थात हम
आज भी है, कल भी थे और कल भी रहेंगे | अब आप योगाशन कीजिये अपने आपको
आत्मा समझाने का प्रयास कीजिये अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है
तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे
का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते
हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर
देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो
विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक
समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने,
और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा
धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का
प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों
को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान
भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं
क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के
सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि
कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना
करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है
कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां
विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म
के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश
नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने
वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के
बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन
युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली
अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता
विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते
हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक
मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ
अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के
बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का
आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ
लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके
वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले
अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे
के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के
लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।
संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना
हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर
यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह
तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता
लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना
चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा
करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त
होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए
निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के
चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं
क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की
बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ
है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा
की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी
संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ
विनाश से भी रोकता है।
अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान
करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह
परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते
हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर
देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो
विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक
समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने,
और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा
धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का
प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों
को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान
भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं
क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के
सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि
कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना
करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है
कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां
विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म
के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश
नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने
वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के
बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन
युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली
अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता
विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते
हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक
मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ
अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के
बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का
आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ
लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके
वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले
अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे
के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के
लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना
हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर
यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह
तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता
लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना
चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा
करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त
होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए
निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के
चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं
क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की
बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ
है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा
की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी
संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ
विनाश से भी रोकता है।
अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान
करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह
परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते
हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर
देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो
विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक
समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने,
और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा
धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का
प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों
को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान
भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं
क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के
सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि
कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना
करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है
कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां
विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म
के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश
नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने
वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के
बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन
युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली
अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता
विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते
हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक
मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ
अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के
बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का
आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ
लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके
वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले
अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे
के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के
लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना
हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर
यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह
तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता
लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना
चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा
करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त
होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए
निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के
चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं
क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की
बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ
है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा
की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी
संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ
विनाश से भी रोकता है।

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